देवभूमि की महिलाओं का पारंपरिक परिधान.. इसके बिना अधूरे हैं सारे पर्व और त्यौहार
परिधान ही तो देवभूमि की संस्कृति है।हर राज्य का परिधान उसकी संस्कृति का परिचय देता है। इसी तरह उत्तराखंड में कुमाऊं का परिधान अपनी अलग पहचान रखता है।
आज हम उत्तराखंड के एक ऐसे पारंपरिक परिधान के बारे में आपको बताने जा रहे हैं, जो संस्कृति को समेटे हुए है।
एक दुल्हन की बात करें तो यहां पिछौड़े को सुहाग का प्रतीक माना जाता है। कुमाऊं में हर विवाहित महिला मांगलिक अवसरों पर इसको पहनना नहीं भूलती है। यहां की परंपरा के मुताबिक त्यौहारों, सामाजिक समारोहों और धार्मिक अवसरों में इसे महिलाएं पहनती है।
शादी के मौके पर वरपक्ष की तरफ से दुल्हन के लिए सुहाग के सभी सामान के साथ पिछौड़ा भेजना अनिवार्य माना जाता है। कई परिवारों में तो इसे शादी के मौके पर वधूपक्ष या फिर वर पक्ष द्वारा दिया जाता है। जिस तरह दूसरे राज्यों की विवाहित महिलाएं के परिधान में ओढनी, दुपट्टा महत्वपूर्ण जगह रखता है, ठीक उसी तरह कुमाऊंनी महिलाओं के लिए पिछौड़ा अहमियत रखता है।
क्या होता है पिछोड़ा
पिछौड़ा एक तरह की ओढ़नी होता है जो तीन या पौने तीन मीटर लम्बा और सवा मीटर तक चौड़ा होता है. पिछौड़ा रंगने के लिये सामान्यतः वाइल या चिकन का कपड़ा प्रयोग में लाया जाता है. गहरे पीले रंग की पृष्ठभूमि पर लाल रंग से रंगाई की जाती है. पारम्परिक पिछौड़े में बीच में एक स्वास्तिक बना होता है.सवास्तिक अलग – अलग ज्यामितीय आकारों फूलों या पत्तियों के आकार के बने होते. जिसके चारों खानों में सूर्य, चंद्रमा, शंख और घंटी बनायी जाती है. इसके चारों ओर के हिस्से को छोटे गोल ठप्पों से रंगा जाता है.
पिछौड़े में सबसे पहले बीच के हिस्से पर कुशल महिलाओं द्वारा स्वास्तिक का निशान बनाया जाता और फिर उसके बीच अन्य आकृति बनायी जाती. यह रंगाई एक सफ़ेद कपड़े के भीतर चव्वनी को लपेट कर की जाती थी. स्वास्तिक और अन्य आकृति बनाने के लिये खड़ी चवन्नी का प्रयोग किया जाता. इसके बाद स्वास्तिक के चारों ओर एक श्रृंखला में कपड़े में बंधी चवन्नी से ठप्पे लगाये जाते थे. और अंत में पिछौड़े का किनारा बनाया जाता. पहले पिछौड़ा केवल दुल्हन द्वारा पहना जाता था इसलिये इसे विवाह से पूर्व गणेश पूजा के दिन गीत संगीत के साथ इसे मिलकर बनाया जाता था.
कुछ पारंपरिक पिछौडों में देवी – देवताओं की आकृति भी बनायी जाती हैं सुहागिन महिला की तो अन्तिम यात्रा में भी उस पर पिछौड़ा जरूर डाला जाता है। पिछौड़ा हल्के फैब्रिक और एक विशेष डिजाईन के प्रिंट का होता है। पिछौड़े के पारंपरिक डिजाईन को स्थानीय भाषा में रंग्वाली कहा जाता है। रंग्वाली शब्द का इस्तेमाल इसके प्रिंट की वजह से किया जाता है क्योंकि पिछौड़े का प्रिंट काफी हद तक रंगोली की तरह दिखता है।
सभी शुभ कामो में पहना जाता है पिछोड़ा
शादी, नामकरण,जनैऊ, व्रत त्यौहार, पूजा- अर्चना जैसे मांगलिक मौके पर परिवार और रिश्तेदारों में महिला सदस्य विशेष तौर से इसे पहनती है।पूजा- अर्चना जैसे मांगलिक मौके पर परिवार और रिश्तेदारों में महिला सदस्य विशेष तौर से इसे पहनती है।पारंपरिक हाथ के रंग से रंगे इस दुपट्टे को पहले गहरे पीले रंग और फिर लाल रंग से बूटे बनाकर सजाया जाता था। रंग्वाली के डिजाईन के बीच का हिस्सा इसकी जान होता है। पिछौड़े के बीच में ऐपण की चौकी जैसा डिजाईन बना होता है।
ऐपण से मिलते जुलते डिजाईन में स्वास्तिक का चिन्ह ऊं के साथ बनाया जाता है। भारतीय संस्कृति में इन प्रतीकों का अपना विशेष महत्व होता है। पिछौड़े में बने स्वातिक की चार मुड़ी हुई भुजाओं के बीच में शंख, सूर्य, लक्ष्मी और घंटी की आकृतियां बनी होती है। स्वातिक में बने इन चारों चिन्हों को भी हमारी भारतीय संस्कृति में काफी शुभ माना गया है।
शादी की सभी रश्मो में जरूरी है पिछोड़ा
आपने अगर कभी भी किसी पहाड़ी शादी मे शिरकत की हो तो आपको याद होगा शादी में विवाहित महिलायें एक पीले रंग की चुनरी ओढ़े होंगी, जिसमें गोल गोल बिन्दू के आकार के डिजाइन बने होंगे।यहीं चुनरी तो कुमाऊं का बहुत ही खास परिधान होता है।कुमाऊं में कोई भी शुभ कार्य हो उस घर की महिलायें कितनी भी डिज़ाइनर साड़ियां क्यों न पहन लें, पर उन सबके साथ पिछौड़ा पहना उनके लिये जरूरी होता है
जहां सूर्य ऊर्जा, शक्ति का प्रतीक है वहीं लक्ष्मी धन धान्य के साथ साथ उन्नति की प्रतीक हैं।बदलते वक्त के साथ भले ही पारंपरिक पिछौड़ों की जगह रेडिमेट पिछौड़ों ने ले ली हो लेकिन कई बदलाव के दौर से गुजर चुके सुहागिन महिलाओं के रंगवाली आज भी कुमाऊंनी लोककला और परंपरा का अहम हिस्सा बनी हुई है।
आजकल पिछौड़ों में भी अलग अलग डिजाइन आने लगे हैं,किसी पिछौड़ें में सूर्य,किसी में घंटी ,फूल,शंख,और साथ में स्वास्तिक का शुभ चिन्ह प्रिन्ट किया जाता है, पर ज्यादातर पिछौड़े एक ही रंग के और एक ही डिजाइन के होते है अंतर केवल उनके भार,चमक और उनमें लगे मोतियों इत्यादि का होता है।
कुंवारी लड़कियां नही पहनती है पिछौड़ा
कुंवारी लड़कियां पिछौड़ा नही पहनती है ,क्योंकि जब लड़की शादी के बंधन में बंधती है ,तब वर पक्ष की ओर से सुहाग की निशानी के तौर पर शादी के पवित्र बंधन में फेरों के वक्त लड़की को आशीर्वाद के रूप में पिछौड़ा दिया जाता है।पिछौड़े को पहनकर ही लड़की सात फेरे लेती है, इसलिये पिछौड़ा केवल सुहागिन औरते ही पहनती हैं।शादी के वक्त मंहगे से महंगे लंहगे को पहन कर भी पिछौड़े के बिना दुल्हन का श्रृंगार अधूरा माना जाता है।सदियों से कुमाऊंनी महिलायें विरासत में मिली इस परंम्परा को पूरी शिद्दत के साथ निभाती आ रही हैं।धीरे धीरे पारम्परिक पिछौड़ा अब गढ़वाल मे भी खूब पहना जा रहा है।अब पिछौड़ा पूरे उत्तराखंड की महिलाओं का पारम्परिक परिधान बन चुका है।
देश विदेश में भी कुमाऊंनी परम्परा के पिछौड़ें को खूब पसंद किया जा रहा है।अल्मोड़ा में आज भी पुराने तरीके से पिछौड़ों को बनाया जाता है।सफेद कपड़े को हल्दी के पानी में भिगोकर धूप में सूखाकर फिर लाल रंग जो कि हल्दी में निम्बू निचोड़कर और सुहागा डालकर तैयार किया जाता है ,उससे पिछौड़ें पर सिक्के को रंग मे डूबोकर गोल डिजाइन बनाया जाता है।मार्केट में आजकल फैशनेबल पिछौड़ें आ गये है ,जो हर तबके की महिलाओं को पसंद आते हैं ,क्योंकि रेडिमेट पिछौड़ों में गोटा,सीप,जरी के साथ साथ शिफाॅन ,जाॅर्जट सिल्क जैसै मटेरियल वाले पिछौड़े जो आने लगे हैं।पर आज भी हाथ से बने पारम्परिक पिछौड़ो ने अपना रूतबा बना कर रखा है।दिल्ली,मुंबई,लखनऊ और विदेशों में रहने वाले पहाड़ी और कुमाऊंनी परिवारों में पिछौड़ों की बिक्री खूब होती है। दिल्ली में रहने वाली कंचन बिष्ट का कहना है “आज हम भले ही मार्डन जमाने में जी रहे है,पर अपने संस्कारों को आज भी हम नहीं भूले हैं।पिछौड़ा हमारी पारम्परिक पहचान है, जिसे ओढ़ कर हर सुहागिन और भी ज्यादा खूबसूरत लगती है
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