ऐसी ही एक जगह है मणिमहेश। कहते हैं भगवान शिव ने यहीं पर सदियों तक तपस्या की थी। इसके बाद से ये पहाड़ रहस्यमयी बन गया।
स्थानीय लोग मानते हैं कि देवी पार्वती से शादी करने के बाद भगवान शिव ने मणिमहेश नाम के इस पहाड़ की रचना की थी।
मणिमहेश पर्वत के शिखर पर भोर में एक प्रकाश उभरता है जो तेजी से पर्वत की गोद में बनी झील में प्रवेश कर जाता है। यह इस बात का प्रतीक माना जाता है कि भगवान शंकर कैलाश पर्वत पर बने आसन पर विराजमान होने आ गए हैं तथा ये अलौकिक प्रकाश उनके गले में पहने शेषनाग की मणि का है। इस दिव्य अलौकिक दृश्य को देखने के लिए यात्री अत्यधिक सर्दी के बावजूद भी दर्शनार्थ हेतु बैठे रहते हैं।
मणिमहेश यात्रा या भरमौर जातर की पोराणिक कथा
चंबा मणिमहेश भरमौर जातर का विशेष महत्व है। माना जाता है कि ब्रम्हाणी कुंड में स्नान किए बिना मणिमहेश यात्रा अधूरी है। आदिकाल से प्रचलित मणिमहेश यात्रा कब से शुरू हुई यह तो पता नहीं मगर पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यह बात सही है कि जब मणिमहेश यात्रा पर गुरु गोरखनाथ अपने शिष्यों के साथ जा रहे थे तो भरमौर तत्कालीन ब्रम्हापुर में रुके थे। ब्रम्हापुर जिसे माता ब्रम्हाणी का निवास स्थान माना जाता था मगर गुरु गोरखनाथ अपने नाथों एवं चौरासी सिद्धों सहित यहीं रुकने का मन बना चुके थे।
वे भगवान भोलेनाथ की अनुमति से यहां रुक गए मगर जब माता ब्रम्हाणी अपने भ्रमण से वापस लौटीं तो अपने निवास स्थान पर नंगे सिद्धों को देख कर आग बबूला हो गईं। भगवान भोलेनाथ के आग्रह करने के बाद ही माता ने उन्हें रात्रि विश्राम की अनुमति दी और स्वयं यहां से 3 किलोमीटर ऊपर साहर नामक स्थान पर चली गईं, जहां से उन्हें नंगे सिद्ध नजर न आएं मगर सुबह जब माता वापस आईं तो देखा कि सभी नाथ व चौरासी सिद्ध वहां लिंग का रूप धारण कर चुके थे जो आज भी इस चौरासी मंदिर परिसर में विराजमान हैं। यह स्थान चौरासी सिद्धों की तपोस्थली बन गया, इसलिए इसे चौरासी कहा जाता है। गुस्से से आग बबूला माता ब्रम्हाणी शिवजी भगवान के आश्वासन के बाद ही शांत हुईं।
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भरमौर नरेश मरुवर्मा और साहिल वर्मा के समय में भी उल्लेख
वैसे तो कैलाश यात्रा का प्रमाण सृष्टि के आदि काल से ही मिलता है। फिर 550 ईस्वी में भरमौर नरेश मरुवर्मा के भी भगवान शिव के दर्शन-पूजन के लिए मणिमहेश कैलाश आने-जाने का उल्लेख मिलता है। लेकिन मौजूदा पारंपरिक वार्षिक मणिमहेश-कैलाश यात्रा का संबंध ईस्वी सन् 920 से लगाया जाता है। उस समय मरु वंश के वंशज राजा साहिल वर्मा (शैल वर्मा) भरमौर के राजा थे। उनकी कोई संतान नहीं थी। एक बार चौरासी योगी ऋषि इनकी राजधानी में पधारे। राजा की विनम्रता और आदर-सत्कार से प्रसन्न हुए इन 84 योगियों के वरदान के फलस्वरूप राजा साहिल वर्मा के दस पुत्र और चम्पावती नाम की एक कन्या को मिलाकर ग्यारह संतान हुई। इस पर राजा ने इन 84 योगियों के सम्मान में भरमौर में 84 मंदिरों के एक समूह का निर्माण कराया, जिनमें मणिमहेश नाम से शिव मंदिर और लक्षणा देवी नाम से एक देवी मंदिर विशेष महत्व रखते हैं। यह पूरा मंदिर समूह उस समय की उच्च कला-संस्कृति का नमूना आज भी पेश करता है। राजा साहिल वर्मा ने अपने राज्य का विस्तार करते हुए चम्बा (तत्कालीन नाम- चम्पा) बसाया और राजधानी भी भरमौर से चम्बा में स्थानांतरित कर दी। उसी समय चरपटनाथ नाम के एक योगी भी हुए।चम्बा गजटियर में वर्णन के अनुसार योगी चरपटनाथ ने राजा साहिल वर्मा को राज्य के विस्तार के लिए उस इलाके को समझने में काफी सहायता की थी। गीता प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित कल्याण पत्रिका के शिवोपासनांक में छपे एक लेख के अनुसार मणिमहेश-कैलाश की खोज और पारंपरिक वार्षिक यात्रा आरंभ करने का श्रेय योगी चरपटनाथ को जाता है।
मणिमहेश यात्रा या जातर
पहले यात्रा तीन चरणों में होती थी। पहली यात्रा रक्षा बंधन पर होती थी। इसमें साधु संत जाते थे। दूसरा चरण भगवान श्री कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर किया जाता था जिसमें जम्मू काशमीर के भद्रवाह , भलेस के लोग यात्रा करते थे। ये सैंकड़ों किलो मीटर की यात्रा पैदल ही अपने बच्चों सहित करते हैं। तीसरा चरण दुर्गाअष्टमी या राधा अष्टमी को किया जाता है जिसे राजाओं के समय से मान्यता प्राप्त है। अब प्रदेश सरकार ने भी इसे मान्यता प्रदान की है। मणिमहेश कैलाश की उंचाई 18654 फुट की है जबकि मणिमहेश झील की उंचाई 13200 फुट की है।
लोग मनीमहेश झील में स्नान करने के बाद अपनी अपनी श्रद्धा के अनुसार कैलाश पर्वत को देखते हुए नारियल व अन्य सामान अर्पित करते हैं झील के किनारे बने मंदिरों में भी सामान चढ़ाते हैं।lमणिमहेश कैलाश की यात्रा के मध्य में धन्छो नामक स्थान पड़ता है इस स्थान से आगे जाकर पवित्र गौरीकुंड है. पार्वती कुंड और भरमौर में कैलाश के साथ मणिमहेश सरोवर यह दोनो जल स्रोत सभी के आकर्षण का केंद्र हैं. गोरी कुंड के बारे में कहा जाता है यह माता गौरी का स्नान-स्थल था यहां पर स्नान कर तीर्थयात्री पवित्रता का एहसास करते हैं. इससे लगभग डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है मणिमहेश सरोवर आम यात्रियों व श्रद्धालुओं के लिए यही अंतिम पड़ाव है.
चंबा के लक्ष्मी नारायण मंदिर से भगवान शिव की चांदी की छड़ी लेकर चली यह यात्रा राख, खड़ामुख आदि स्थानों से होती हुई भरमौर के चौरासी मंदिर समूह में भगवान मणि महेश की पूजा के बाद हरसर, धांचू होते हुए राधा अष्टमी के दिन मणि महेश पहुंचती है. मणि महेश झील तक का पहाड़ी रास्ता प्राकृतिक सौंदर्य के दृश्यों से परिपूर्ण है. हरसर तंग घाटी में बसा क्षेत्र है इसको पार करने के पश्चात धणछो पहुँचा जाता है धणछो का अर्थ है झरनों में प्रमुख झरना इसके संबंध में भी एक पौराणिक कथा है
भस्मासुर से बचकर यहां छुपे थे भगवान शिव
कि शिव भगवान भस्मासुर से बचते हुए इसी झरने की कंदराओं के पीछे छिपे थे तब भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर भस्मासुर का अंत किया और तब शिव यहां से निकले. गौरी कुंड स्थल से आगे जा कर मणिमहेश झील आती है जो यात्रा को संपूर्ण करती है यहां पर भक्त गण इस झील के शीतल जल में स्नान करते हैं.
आस्था है की झील में स्नान करने से अनेक व्याधियों से मुक्ति मिलती है. इसके पश्चात झील के किनारे स्थित संगमरमर से निर्मित भगवान शिव की चौमुख मूर्ति की पूजा करते हैं. पूजा-अर्चना के बाद झील की परिक्रमा की जाती है. मनौती पूर्ण होने पर लोग यहां लोहे के त्रिशूल व झंडी आदि चढ़ाते हैं. कैलाश के शिखर पर चट्टान के आकार में बने शिवलिंग के आकार की बनी चट्टान सभी को मंत्र- मुग्ध कर देती है. बर्फीली चोटियों से घिरी मणि महेश झील दर्शनीय है.
मणिमहेश कैलाश पर्वत एक रहस्यमयी पहाड़, जिस पर चढ़ने की बात से भी कांपते हैं लोग
मणिमहेश झील एक छोटा सा पवित्र सरोवर है जो समुद्र तल से लगभग 13,500 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। इसी सरोवर की पूर्व की दिशा में है वह पर्वत जिसे कैलाश कहा जाता है। इसके गगनचुम्बी हिमाच्छादित शिखर की ऊंचाई समुद्र तल से लगभग 18,564 फुट है।
सुबह की पहली किरण जब मणि महेश पर्वत के पीछे से फूटती है तो पर्वत शिखर के कोने में एक अद्भुत प्राकृतिक छल्ला बन जाता है। यह दृश्य किसी बहुमूल्य नगीने की भांति होता है। इस दृश्य को देखकर शिवभक्तों की थकावट क्षण भर में दूर हो जाती है।
मणिमहेश पर्वत के शिखर पर भोर में एक प्रकाश उभरता है जो तेजी से पर्वत की गोद में बनी झील में प्रवेश कर जाता है। यह इस बात का प्रतीक माना जाता है कि भगवान शंकर कैलाश पर्वत पर बने आसन पर विराजमान होने आ गए हैं तथा ये अलौकिक प्रकाश उनके गले में पहने शेषनाग की मणि का है।ऐसा माना जाता है कि आज तक इस पहाड़ की ऊंचाई कोई नहीं नाप पाया। इस पहाड़ पर चढ़ना मुश्किल नहीं है लेकिन जो भी उपर गया वह वापस नहीं लौटा। स्थानीय लोग व बुजुर्ग कहते हैं कि भले ही एवरेस्ट पर लोग चढ़ गए हों लेकिन इस पहाड़ पर चढ़ना इतना आसान नहीं है। कहते हैं एक बार एक गद्दी इस पहाड़ पर चढ़ गया था। उस गददी ने प्रण लिया था की वो कैलाश की हर सीडी पर एक भेड़ या बकरी की बली देगा ,मगर चोटी पर पहुंचने से पहले ही ये पत्थर में बदल गया। इसके साथ जो भेड़ें थी वे भी पत्थर की बन गई। इसके कुछ मिलते जुलते पत्थर आज भी यहां पड़े हैं।
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