गणेश विसर्जन जरूर करें लेकिन इसके साथ साथ अपने रली शंकर के त्यौहार को न भूले , जानिये रली शंकर उत्सव के बारे में

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गणेश महोत्सव का आखिरी दिन गणेश विसर्जन की परंपरा है. 10 दिवसीय महोत्सव का समापन अनंत चतुर्दशी के दिन विसर्जन के बाद होता है. परंपरा है कि विसर्जन के दिन गणपति की मूर्ति का नदी, समुद्र या जल में विसर्जित करते हैं. इसके पीछे एक दिलचस्प कहानी है. ऐसा माना जाता है कि श्री वेद व्यास जी ने गणपति जी को गणेश चतुर्थी के दिन से महाभारत की कथा सुनानी शुरू की थी, उस समय बप्पा उसे लिख रहे थे. कहानी सुनाने के दौरान व्यास जी आंख बंद करके गणेश जी को लगातार 10 दिनों तक कथा सुनाते रहे और गणपति जी लिखते गए. कथा खत्म होने के 10 दिन बाद जब व्यास जी ने आंखे खोली तो देखा कि गणेश जी के शरीर का तापमान काफी ज्यादा बढ़ गया था. ऐसे में व्यास जी ने गणेश जी के शरीर को ठंडा करने के लिए जल में डुबकी लगवाई. तभी से यह मान्‍यता है कि 10वें दिन गणेश जी को शीतल करने के लिए उनका विसर्जन जल में किया जाता है

भारतीय इतिहास में इस परंपरा की शुरुआत बाल गंगाधर तिलक ने महाराष्ट्र से की थी. उन्होंने ये अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ एकजुट होने के लिए की थी. उन्हें ये बात अच्छे  से पता थी कि भारतीय आस्था के नाम पर एकजुट हो सकते हैं. इसलिए उन्होंने महाराष्ट्र में गणेश महोत्सव की शुरुआत की और वहां गणेश विसर्जन भी किया जाने लगा.

हिमाचल प्रदेश में पहले गणेश विसर्जन नहीं हुआ करता था ,धीरे धीरे लोगो में जागृति आयी और वो देखा देखि में गणेश विसर्जन ,क्रिसमिस आदि त्यौहार भी मनाने लगे जो की एक अच्छी बात है ,लेकिन अन्य परमपराओं को अपनाने के साथ अपनी परम्पराओ को लोगो ने छोड़ना शुरू कर दिया

उन्ही में से एक परम्परा है रली और शंकर का विवाह
आज में आपको रली शंकर विवाह से जुडी कुछ रोचक बाते बताया हूँ , यह त्यौहार कैसे मनाया जाता है और इसके बारे में क्या इतिहास है , इतिहासकार इसके बारे में क्या बताते है यह सब बताने से पहले से पहले चलते है आज से 8 -10 साल पीछे

यह जो आपको रली विवाह के बारे में बता रहा हु अपनी जानकारी के आधार पर बता रहा हूँ,जब में बहुत छोटा था तो मेरे ताऊ जी कि लडकियाँ और चाचा जी कि लड़की और गांव कि अन्य लडकियां इस त्यौहार को बहुत धूमधाम से मनाती थी ,मेरे चाचा जी कि एक लड़की जो सबसे जयादा इस त्यौहार में रूचि लेती थी वो दुर्भाग्ग्य से आज हमे छोड़ कर इस दुनिया से विदा ले चुकी है ,लेकिन उनकी यादे और रलियों का त्यौहार आज भी मुझे याद है,उस समय सभी परिवारों कि आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नही होती थी तो गांव में उपलब्ध संसाधनों में ही यह त्यौहार मनाया जाता था I इस लेख में हो सकता है कुछ गलतियां हो क्युकी यह मेने सिर्फ अपनी जानकारी के आधार पर लिखा है और मुझे उम्मीद है आप कमेंट बॉक्स में जरुर इनको ठीक करेंगेI तो में शुरू कर रहा हूँI

मिटटी कि  बनी होती है रली शंकर और बसतु कि मूर्तियाँ:

यह मेला हिमाचल के काँगड़ा में मनाया जाता है , फाल्गुन के महीने में  गांव कि छोटी छोटी लडकियाँ रीठे जिसे डोडे कि गुठली को मिटी में कुछ दिन के लिए  दवा देती है, फिर लगवघ एक सप्ताह बाद उनको निकाल कर अछी तरह से धो कर पूजा आदि कर के मिटटी के तीन खिलोने बना कर उनकी आँखे इन रीठे की गुठलियों से बनायी जाती है I  जो मिटटी से तीन मुर्तिया बनाई जाती है उन्हें रली ,शंकर और बसतु कहते है ,रली को पार्वती ,शंकर यानी शिव भगवान  और वश्तु को शायद गणेश का रूप माना जाता है I अब जिस घर में रलियाँ रखी जाती है उस घर में प्रतिदिन लडकियां सूर्योदय से पहले इकठी होती है और जंगली फुल जो कि वसंत में खुव होते है ,इन्हें खास रलियों के फूल ही कहते है ,चुग कर लाती है , इसके बाद वो इनको धुप टिका आरती आदि करते हुए रलियों के खास गीत गाती है I शाम को ढोलकी चिमटे के ऊपर गीत और भजन गाये जाते है ,यह सिर्फ एक दिन का प्रोग्राम नही होता वल्कि रोज ही ऐसा होता है ,रलियों वाले घर में उत्सब सा माहोल होता है जैसे जैसे रली के विवाह का दिन नजदीक आता है रोनक और बड़ने’ लग जाती है I

फोटो में आप देख सकते है कि रली कि मूर्ति मिटटी से बनायीं गयी है जिसमे रीठे से आँखे और मुह को क्लीरो में लगने वाले मोतियों से बनाया जाता है

मिटटी कि बनी रली कि मूर्ति

विवाह से कुछ दिन पहले रली और शंकर को अलग अलग घरो में रखा जाता है :

अब विवाह से कुछ दिन पहले रली शंकर को एक अलग घर में शिफ्ट कर दिया जाता है और अब पूजा एक घर नही वल्कि दो घरो में होने लगती है ,लडकियों कि दो टोलियाँ बन जाति है , अब जो भी प्रोग्राम होते है वो ठीक शादी कि तरह होते है I शंकर के पक्ष वाली लकडिया लडके वाले कहलाते है और रली कि लड़की वाली l दिन में लडकियों कि टोलियाँ रली को एक टोकरी में डाल कर घर घर गाने जाती है जिसके बदले उन्हें गांव के लोग धान /धन आदि देते है ,इन्ही पैसो से वो आगे चल कर नई मूर्तियाँ  और उनके लिए वस्त्र आदि खरीदती है

rali shankar vivah
रली और शंकर के विवाह में बच्चे

मात्र गुडे गुडिया का खेल नही 

जैसे जैसे विवाह का दिन आता है गांव वाले भी अपना पुरा सहयोग देते है ,यह मात्र गुड्डे या गुडिया का खेल नही वल्कि पुरी श्रधा और रीति रिवाजो से मनाया जाने वाला रली शंकर विवाह होता है , और वकयदा दावत तक का इंतजाम होता है ,सारे कार्यक्रम एक सामन्य लड़के लडकी कि शादी की तरह होते है जिसमे फौक्स में बच्चो के खिलोने कहो या श्रदा रली शंकर होते है l

Rali Shankar Vivah -रली शंकर विवाह
Rali Shankar Vivah -रली शंकर विवाह ( Rali Shankar Vivah )

असली शादी जैसा माहोल,पुरा गांव लेता भाग:

विवाह के दिन  शंकर के घर से वाकायदा लडकिया ढोलकी चिमटे बाजो के साथ बारात ले कर आती है ,शादी के गीत गाये जाते है ,कुछ जगह रात को धाम भी परोसी जाती है रात भर नाच गाना होता है और घर के बडे लोग और गांव वाले सब बराबर हिस्सा लेते है , फिर शादी कि तरह लग्न फेरे दिला कर रली और शंकर का विवाह करवा दिया जाता है , विवाह शायद विशाखी से एक या दो दिन पहले होता हैशान जैसे एक लड़की शादी कर के लड़के के घर चली जाती है ठीक वेसे ही रली को भी उसके यानी शंकर के घर शिफ्ट कर दिया जाता है , इस विच लडकियाँ ठीक वेसे ही रोती है जैसे अपनी सहेली या वहन कि विदाई पर और उसके बाद जैसे शादी से अगले दिन आम शादियों में लड़की वापिस मायके आ जाती है वेसे ही फिर से रली वापिस आ जाती है

रली विसर्जन और रली का मेला :

विशाखी के दिन रली और  शंकर की मूर्तियों का विसर्जन कर दिया जाता है ,इस दिन काँगड़ा के कई इलाको में मेला लगता है  जिसमे काँगड़ा के नदरूल और चामुंडा देवी माता से सटे गांव दाढ़ का रली मेला बहुत मशहूर है अकेली बनेर खड्ड के आसपास ही 10 से अधिक जगहों पर रली का विसर्जन किया जाता है,पालमपुर के लोग भेडू महादेव में , कांगड़ा के लोग चामुंडा देवी में, और बैजनाथ के लोग बिनवा नदी में मूर्तियों को विसर्जित करते हैं।

rali visarjan -रली विसर्जन
rali visarjan -रली विसर्जन

रली का मेला जो चामुंडा मन्दिर के पास लगता है उसमे भारी जनसैलाब उमड़ता है मेले में पशुओ कि मंडी भी लगती हैI

लुप्त होने को है यह परम्परा 

Rali Shankar Vivah -रली शंकर विवाह

अब बात करते है इतिहास की

रली शंकर विवाह का इतिहास

हालांकि की हिमाचल के ज़्यदातर पर्वो की तरह को रली विवाह के भी कोई लिखित इतिहास में साक्ष्य नहीं है और जन श्रुतिओ और मान्यताओं के आधार पर अलग अलग विद्वानों के अलग अलग मत है

राजस्थान का गणगौर उत्सव :

काँगड़ा जिला के एक विद्वान लेखक  DK Choudhary की किताब “घृत दी डेमोग्राफिक यूनिकनेस ऑफ काँगड़ा के अनुसार मालवा की रानो बाई का विवाह दक्षिण राजस्थान के एक क्षेत्र में हुआ था , रानो बाई अपने ससुराल में खुश नही थी एक दिन अपने मायके (मालवा) से राजस्थान ससुराल जाते समय उसने एक नदी में छलांग लगा दी ।उसी रानी की याद में शिव पार्वती को समर्पित मालवा एयर राजस्थान में गणगौर उत्सब मनाया जाता है। गणगौर माता पार्वती का गौर अर्थात श्वेत रूप है। उन्हें गौरी और महागौरी भी कहते हैं रली को भी पार्वती माता का स्वरूप माना गया है
राजस्थान का गणगौर उत्सव
ठीक ऐसे ही काँगड़ा में एक कहानी है कि रली नामक एक लड़की की शादी अपने से काफी छोटे लड़के से कर दी गयी जिस से वो खुश नही थी एक दिन जब वो मायके से ससुराल जा रही थी तो उसने पालकी से कूद कर नदी में छलांग लगा दी उसके पीछे रली को बचाने के लिए उसके भाई बस्तु ने भी छलांग लगा दी और वो दोनों डूब गए । ( आपने देखा होगा रली विवाह में लड़कियां 3 मूर्तियों को विसर्जित करती है रली शंकर और बस्तु, यह बही बस्तु है जिसने रली को बचाने के लिए छलांग लगाई थी )
राजस्थान और काँगड़ा दोनों जगह अविवाहित लडकिया अच्छा वर पाने की चाह में शिव भगवान और पार्वती को पूजती है और उनका विवाह करवा कर उन्हें विसर्जित करती है।
राजस्थान,मध्यप्रदेश और काँगड़ा में एक जैसे त्योहार होने के कारण DK चौधरी कही न कही रली मेला (कांगड़ा) और गणगौर ( राजस्थान) को आपस मे जोड़ते हुए काँगड़ा के घृत समुदाय का कनेक्शन मालवा से जोड़ते है,हालांकि में सिर्फ इस डेटा को काफी नही मानता क्योंकि काँगड़ा में रली पूजन काफी अलग है और यहां पर सिर्फ घृत ही नही बल्कि अन्य समुदाय के लोग भी रली विवाह करते है । उत्तराखंड का फूलदेई पर्व तो काफी कुछ रली विवाह से मिलता जुलता है।

उत्तराखंड का फूलदेई पर्व

फूलदेई पर्व उत्तराखंड के प्रमुख त्योहारों में से एक त्यौहार है, तथा इसका सीधा सम्बन्ध प्रकृति से है | फूल संक्रांति के नाम से भी जाना जाने वाला फूलदेई का यह पर्व सदियों पूर्व से पर्यावरण को बचाने के लिए मनाया जाता है |

इस दिन बच्चे फ्योंली,बुरांश तथा अन्य रंग-बिरंगे फूलों को चुनकर इकट्ठा करते हैं, और घोघा माता की सजी हुई फूलकंडी में रख देते हैं |घोघा माता की सजी फूलकंडी को लेकर बच्चे घर-घर जाते हैं, और घर की देहरी पर फूल डालते हैं, तथा सुख और समृद्धि के लिए सुभकामनाएँ देते हैं | महिलाओं द्वारा घर आये बच्चों की टोली का स्वागत किया जाता है, और उन्हें उपहार के रूप में चावल, गुड, पैसे इत्यादि दिए जाते हैं | अंतिम दिन बच्चे घोघा माता की बड़ी पूजा करते हैं, और इस अवधि के दौरान जितना भी चावल,दाल और भेंट राशि एकत्रित होती है, उसकी मदद से सामूहिक भोज पकाया जाता है, जिसे प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है

फूलदेई पर्व

रली विवाह की ही तरह फूलदेई में भी रोजाना फूल इक्क्ठे किये जाते है और ताजे फूलो से पूजा की जाती है , दोनों त्यौहार बच्चो के है जिसमे बड़े भी बरावर हिस्सा लेते है ,कितने मिलते जुलते है न

एक अन्य मान्यता 

एक अन्य मान्यता के अनुसार कांगड़ा जनपद के किसी गांव में एक ब्राह्मण ने अपनी नौजवान कन्या रली का विवाह उससे आयु में बहुत छोटे लड़के से कर दिया था। कन्या ने इस संबंध में विरोध भी किया, लेकिन अंततः मां-बाप की इच्छा के आगे उसे झुकना पड़ा। उस समय रिश्ते मां-बाप द्वारा तय किए जाते थे। कन्या का विवाह शंकर नामक लड़के से हो गया। कन्या को विदा करके उसके पति के घर रवाना कर दिया गया। परंपरानुसार उसका छोटा भाई, जिसका नाम वस्तु था, को उसे छोड़ने के लिए उसके साथ भेज दिया गया। रली को जब डोली में बैठाकर ले जा रहे थे, तो रास्ते में एक नदी पड़ती थी। उसने डोली नदी के किनारे रखने को कहा। रली ने अपने भाई को बुलाया और कहा भैया भाग्य में जो लिखा था, वह तो हो ही गया। अब मैं पूरा जीवन इस छोटी आयु के पति के साथ नहीं गुजार सकती। मैं इस रिश्ते के लिए किसी को दोष नहीं देती, लेकिन आज के उपरांत जो भी अविवाहित कन्या हर वर्ष चैत्र मास में श्रद्धापूर्वक शिव-पार्वती की पूजा करके उनका विवाह रचाएगी, उसे योग्य और मनचाहे वर की प्राप्ति होगी। यह कह कर रली ने गहरे पानी में अपने आपको आत्मसात कर लिया। उसके दूल्हे ने जब यह देखा तो उससे भी रहा नहीं गया और उसने भी नदी में छलांग लगा दी। देखते ही देखते दोनों नदी की तेजधार में बह गए। कहा जाता है कि उस दिन से रली विवाह का प्रचलन आरंभ हो गया।

रली पूजन के लिए फूल इक्क्ठा करती हुई , काँगड़ा के लाखामंडल गांव के बच्चे

अब यह अनूठी परमपरा लगबघ ख़त्म होने को है और शायद ही कोई  ऐसा गांव होगा जहाँ यह आज भी मनाई जाती हो ,लेकिन मेले तो आज भी लगते है , 14 अप्रैल विशाखी वाले दिन इस वर्ष भी डाढ गांव में रलियों का मेला मनाया जायेगा जिस में हर वर्ष कि तरह छिंज का आयोजन होने जा रहा है I आज हमे जुरुरत है हिमाचल कि इन परम्पराओ को जीवित रखने की

नुआला के वारे में पढ़े :-

क्या होता है भगवान शिव को समर्पित गददी लोगो कि परम्परा नुआला पढ़े इस लिंक में 


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