सावित्री व्रत
आज पूरे उत्तर भारत में वट सावित्री पूजा है। इस पूजा का खासकर बिहार, झारखंड में बहुत अधिक मान्यता है। यह त्यौहार हर साल ज्येष्ठ मास की अमावस्या को मनाया जाता है। इस दिन सुहागिनें वटवृक्ष की पूजा करतीं हैं और अपने पति की दीर्घायु की कामना करती हैं।
मान्यता है कि इस दिन सावित्री ने यमराज से अपने पति सत्यवान के प्राण वट वृक्ष के नीचे वापिस लिए थे। इस दिन महिलाएं सुबह जल्दी उठकर स्नानादि के बाद सोलह श्रंगार करती हैं। कहा जाता है इस दिन वट वृक्ष की पूजा के बाद ही जल ग्रहण करना चाहिए।
वट वृक्ष बरगद का पेड़ होता है और इसमें ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों का वास होता है। हिन्दू पुराणों के अनुसार वट वृक्ष की जड़ में ब्रह्मा, तने में विष्णु और ऊपरी हिस्से में महेश रहते हैं, इसीलिए इसकी पूजा से सारी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। इसकी पूजा वृक्ष को जल दिया जाता है और हल्दी, सिंदूर, फल-फूल आदि के साथ की जाती है।
व्रत कथा के अनुसार जब यमराज सत्यवान के प्राण ले जाने लगे तो सावित्री उनके पीछे-पीछे चलने लगीं। यमराज ने उनको ऐसा न करने के लिए उनको तीन वरदान देने की बात कही। एक वरदान में सावित्री ने मांगा की उनको सौ पुत्रों की प्राप्ति हो और यमराज ने वरदान दे दिया। इतना सुनते ही सावित्री ने कहा कि वह पतिव्रता है और बिना पति के संतान कैसे संभव है। यमराज यह जान गए थे कि उन्होंने अनजाने में वरदान दे दिया है और उन्होंने चने के रूप में सत्यवान के प्राण वापिस कर दिए।
सावित्री ने वह चना अपने पति के मुंह में रखा और फूंक मारी। इससे उसका पति जीवित हो उठा। इसीलिए इस व्रत में चने का प्रसाद दिया जाता है। जब सावित्री प्राण लेने के लिए यमराज के पीछे गई थी तो वट वृक्ष ने उसके पति के शव की देखभाल की थी। तो आभार व्यक्त करने के लिए सावित्री ने परिक्रमा की थी तभी इस दिन वट वृक्ष की परिक्रमा की जाती है और पति की लंबी आयु और संतान के लिए प्रार्थना की जाती है।
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