मक्की की इन कौंपलों को ही मिंजर कहते हैदेवभूमि हिमाचल में देवी-देवताओं का वास कहा जाता है। यहाँ की संस्कृति और परंपराएं काफी अलग हैं। यूँ तो प्रदेश भर बहुत से मेले, त्यौहार और उत्सव मनाए जाते हैं लेकिन शिवभूमि चंबा का मिजर मेला प्रदेश में ही नहीं बल्कि पूरे देश भर में प्रसिद्ध है। चंबा शहर राजा साहिल बर्मन द्वारा उनकी बेटी राजकुमारी चंपावती के कहने पर रावी नदी के किनारे बसाया गया था। इसीलिए इस शहर का नाम चंबा रखा गया था। इस मेले को अंतर्राष्ट्रीय मेले का दर्जा दिया गया है। यह मेला श्रावण मास के दूसरे रविवार को शुरू होकर सप्ताह भर चलता है।
इस मेले को क्यों मिला मिंजर का नाम
स्थानीय लोग मक्की और धान की बालियों को मिजर कहते हैं। इस मेले का आरंभ रघुवीर जी और लक्ष्मीनारायण भगवान को धान और मक्की से बना मिंजर या मंजरी और लाल कपड़े पर गोटा जड़े मिंजर के साथ, एक रूपया, नारियल और ऋतुफल भेट किए जाते हैं। इस मिंजर को एक सप्ताह बाद रावी नदी में प्रवाहित किया जाता है।मक्की की कौंपलों से प्रेरित चंबा के इस ऐतिहासिक उत्सव में मुस्लिम समुदाय के लोग कौंपलों की तर्ज पर रेशम के धागे और मोतियों से पिरोई गई मिंजर तैयार करते हैं। जिसे सर्वप्रथम लक्ष्मी नाथ मंदिर और रघुनाथ मंदिर में चढ़ाया जाता है और इसी परंपरा के साथ मिंजर महोत्सव की शुरूआत भी होती है
क्यों मनाया जाता है मिंजर
लोककथाओं के अनुसार मिंजर मेले की शुरूआत 935 ईसवी में हुई थी। जब चंबा के राजा त्रिगर्त के राजा जिसका नाम अब कांगड़ा है, पर विजय प्राप्त कर वापिस लौटे थे तो स्थानीय लोगों ने उन्हें गेहूं, मक्का और धान के मिंजर और ऋतुफल भेंट करके खुशियाँ मनाई थी।
हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतीक
शाहजहां के शासनकाल के दौरान सूर्यवंशी राजा पृथ्वीसिंह रघुवीर जी को चंबा लाए थे। शाहजहां ने मिर्जा साफी बेग को रघुवीर जी के साथ राजदूत के रूप में भेजा था। मिर्जा साहब जरी गोटे के कम में माहिर थे। चंबा पहुंचने पर उन्होंने जरी का मिंजर बना कर रघुवीर जी, लक्ष्मीनारायण भगवान और राजा पृथ्वीसिंह को भेंट किया था। तब से मिंजर मेले का आगाज़ मिर्जा साहब के परिवार का वरिष्ठ सदस्य रघुवीर जी को मिंजर भेंट करके करता है। इससे सिद्ध होता है कि चंबा और संपूर्ण भारत धर्म निरपेक्ष था।सदियों पुरानी परंपरा के अनुसार आज भी मिर्जा परिवार के सदस्यों द्वारा मिंजर तैयार कर भगवान रघुवीर को अर्पित किया जाता है। जिसके बाद ही विधिवत रूप से मिंजर मेले का आगाज होता है और मौजूदा समय में भी इस परिवार का वरिष्ठ सदस्य इस परंपरा को पूरी निष्ठा के साथ निभा रहा है।
मिंजर मेले की परंपराएं
मिंजर मेले में पहले दिन भगवान रघुवीर जी की रथ यात्रा निकलती है और इसे रस्सियों से खींचकर चंबा के ऐतिहासिक चौगान तक लाया जाता है जहां से मेले का आगाज़ होता है। भगवान रघुवीर जी के साथ आसपास के 200 से ज्यादा देवी-देवता भी वहां पहुंचते हैं। मिर्जा परिवार सबसे पहले मिंजर भेंट करता है। रियासत काल में राजा मिंजर मेले में ऋतुफल और मिठाई भेंट करता था लेकिन अब यह काम प्रशासन करता है। उस समय घर-घर में ऋतुगीत और कूंजड़ी-मल्हार गाए जाते थे। अब स्थानीय कलाकार मेले में इस परंपरा को निभाते हैं। मिंजर मेले की मुख्य शोभायात्रा राजमहल अखंड चंडी से चौगान से होते हुए रावी नदी के किनारे तक पहुंचती है। यहाँ मिंजर के साथ लाल कपड़े में नारियल लपेट कर, एक रूपया और फल-मिठाई नदी में प्रवाहित की जाती है।
कहा जाता है एक बार रावी नदी हरी राय मंदिर और चंपावती मंदिर के बीच बहती थी जिसके कारण सब लोग वहां तक नहीं पहुंच पाते थे। राजा साहिल बर्मन ने एक साधु जो कि नदी को रोज पार किया करता था, से प्रार्थना की कि वो भगवान से प्रार्थना करे ताकि सब लोग मंदिर तक पहुंच सकें। एक सप्ताह तक यज्ञ करने और धान के पौधों से लम्बी रस्सी जो कि असल में मिंजर होता है बुनने के बाद , साधु रावी नदी के बहाव को बदल पाने में सफल हो पाया।
दी जाती थी भैंसे की बली
1943 तक भैंसे की बली दी जाती थी। इसके अनुसार जीवित भैंसे को नदी में बहा दिया जाता था और यह आने वाले साल में राज्य के भविष्य को दर्शाता था। अगर पानी का बहाव भैंसे को साथ ले जाता था और वह डूबता नहीं था तो उसे अच्छा माना जाता था और माना जाता था कि बली स्वीकार हुई। अगर भैंसा बच जाता और नदी के दूसरे किनारे चला जाए तो उसे ढी अच्छा माना जाता था कि दुर्भाग्य दूसरी ओर चला गया है। अगर भैंसा उसी तरफ वापिस आ जाता था तो उसे बुरा माना जाता था। अब भैंसे की जगह सांकेतिक रूप से नारियल की बली दी जाती है। विभाजन के बाद पाकिस्तान गए लोग भी रावी नदी के किनारे मिंजर प्रवाहित करते हैं और कूंजड़ी-मल्हार गाते हैं। 1948 से रघुवीर जी रथयात्रा की अगुवाई करते हैं।
यह भी रोचक
कमल प्रसाद शर्मा की मानें तो 19वीं सदी में एक झोटे ने रावी नदी को पार कर लिया और करीब 17 साल तक यह झोटा चंबा के राजमहल में शाही मेहमान के रूप में रहा। राजा ने उसकी सेवा के लिए बकायदा सेवादारों की व्यवस्था कर रखी थी। उसने लगातार 17 साल तक रावी को पार किया और बाद में राजमहल में उसकी मौत हो गई थी।

कब आया बदलाव
आजादी के बाद मिंजर विसर्जन के दौरान सिर्फ रघुनाथ जी की पालकी ही मिंजर यात्रा के साथ चलती थी। लेकिन बाद में प्रशासन ने स्थानीय देवी-देवताओं को भी इस यात्रा में शामिल करने की इजाजत दे दी। मिंजर की शोभायात्रा अंतिम दिन पूरे राजशाही अंदाज में निकाली जाती है और मंजरी गार्डन में मिंजर को प्रवाहित किया जाता है।
अभी भी जीवित है परंपराएं
मिंजर मेला सदियों से मनाया जा रहा है। इतना समय बीत जाने और बदलाव आने के कारण भी इसकी बहुत सी परंपराएं अभी तक जिंदा हैं। मिंजर मेले में लोग खास तरह के वस्त्र पहन कर पहुंचते हैं। उसमें जरी गोटे का मिंजर विशेष होता है। आज भी सबसे पहला मिंजर मिर्जा परिवार भगवान रघुवीर जी को अर्पित करता है।
मेले में विशेष
मिंजर मेले में स्थानीय ही नहीं बल्कि अन्य जिलों और राज्यों से भी लोग मेले का आनंद लेने पहुंचते हैं। इस मेले में हाथ से बना सामान काफी बिकता है जैसे चंबा रूमाल, चंबा चप्पल जो कि चंबा की विशेषता है। इसके अलावा और भी वस्तओं का व्यापार होता है।
मिंजर मेला 2017
यह मेला 23 से लेकर 30 जुलाई तक जारी रहेगा। ऐतिहासिक मिंजर मेला हिंदू-मुस्लिम एकता व भाईचारे का प्रतीक है। सदियों पुरानी परंपरा के अनुसार आज भी मिर्जा परिवार के सदस्यों द्वारा मिंजर तैयार कर भगवान रघुवीर को अर्पित किया जाता है। जिसके बाद ही विधिवत रूप से मिंजर मेले का आगाज होता है और मौजूदा समय में भी इस परिवार का वरिष्ठ सदस्य इस परंपरा को पूरी निष्ठा के साथ निभा रहा है।
आजादी के पूर्व क्या थी मिंजर परंपरा
चंबा के प्रसिद्ध लेखक व इतिहासकार कमल प्रसाद शर्मा की मानें तो उन्हें आज भी 1946 की वो मिंजर याद है। जब वे सात या आठ साल के रहे होंगे। उस समय चंबा में झोटे (भैंस) को रावी नदी पर उतारा जाता था। उस समय मान्यता थी कि यदि झोटा रावी के पार पहुंच जाए तो चंबा नगर के सभी दुख और कष्ट खत्म हो जाएंगे। लोगों की भीड़ दूरदराज के गांवों से मिंजर में सिर्फ अंतिम दिन यात्रा को देखने के लिए आती थी। 1947 में इस प्रथा को खत्म कर दिया गया और अब सिर्फ मिंजर का ही विसर्जन होना शुरू हुआ है। उस समय पशु क्रूरता अधिनियम को लेकर सरकार सख्त हो गई थी।


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