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सरस्वती नदी का इतिहास

गंगा युमुना और सरस्वती का नाम एक साथ हम लोग सदियों से लेते आ रहे है और यह भी मानते है की इलाहावाद के पास यह तीनो नदियाँ मिल जाती है ,लेकिन भोतिक रूप से सिर्फ गंगा और यमुना ही दो नदिया है ,सरसवती नदी अदृश्य रूप में है ,तो फिर कहाँ है सरस्वती नदी आइये इस लेख में पढ़ते है

History behind Saraswati River in Hindi

सरस्वती एक पौराणिक नदी जिसकी चर्चा वेदों में भी है,सरस्वती नदी का नाम तो सभी ने सुना लेकिन उसे किसी ने देखा नहीं। माना जाता है कि प्रयाग में गंगा, यमुना और सरस्वती का मिलन होता है इसीलिए उसे त्रिवेणी संगम कहते हैं। लेकिन यह शोध का विषय है कि क्या सचमुच सरस्वती कभी प्रयाग पहुंचकर गंगा या यमुना में मिली?

 

सरस्वती एक विशाल नदी थी। पहाड़ों को तोड़ती हुई निकलती थी और मैदानों से होती हुई समुद्र में जाकर विलीन हो जाती थी। इसका वर्णन ऋग्वेद में बार-बार आता है। कई मंडलों में इसका वर्णन है। ऋग्वेद वैदिक काल में इसमें हमेशा जल रहता था। सरस्वती आज की गंगा की तरह उस समय की विशाल नदियों में से एक थी।

सरस्वती नदी पौराणिक हिन्दु ग्रंथों तथा ऋग्वेद में वर्णित मुख्य नदियों में से एक है। ऋग्वेद के नदी सूक्त के एक श्लोक (१०.७५) में सरस्वती नदी को यमुना के पूर्व और सतलुज के पश्चिम में बहती हुए बताया गया है। उत्तर वैदिक ग्रंथों जैसे ताण्डय और जैमिनिय ब्राह्मण में सरस्वती नदी को मरुस्थल में सुखा हुआ बताया गया है, महाभारत भी सरस्वती नदी के मरुस्थल में विनाशन नामक जगह में अदृश्य होने का वर्णन करता है। महाभारत में सरस्वती नदी को प्लक्षवती नदी, वेद स्मृति, वेदवती आदि नामों से भी बताया गया है.

ऋग्वेद तथा अन्य पौराणिक वैदिक ग्रंथों में दिए सरस्वती नदी के संदर्भों के आधार पर कई भू-विज्ञानी मानते हैं कि हरियाणा से राजस्थान होकर बहने वाली मौजूदा सूखी हुई घग्गर-हकरा नदी प्राचीन वैदिक सरस्वती नदी की एक मुख्य सहायक नदी थी, जो 5000- 3000 ईसा पूर्व पूरे प्रवाह से बहती थी। उस समय सतलुज तथा यमुना की कुछ धाराएं सरस्वती नदी में आकर मिलती थी। इसके अतिरिक्त दो अन्य लुप्त हुई नदियां दृष्टावदी और हिरण्यवती भी सरस्वती की सहायक नदियां थी, लगभग 1900 ईसा पूर्व तक भूगर्भी बदलाव की वजह से यमुना, सतलुज ने अपना रास्ता बदल दिया तथा दृष्टावदी नदी के भी 2600 ईसा पूर्व सूख जाने के कारण सरस्वती नदी लुप्त हो गई।

महाभारत में मिले वर्णन के अनुसार सरस्वती नदी हरियाणा में यमुनानगर से थोड़ा ऊपर और शिवालिक पहाड़ियों से थोड़ा सा नीचे आदिबद्री नामक स्थान से निकलती थी। आज भी लोग इस स्थान को तीर्थस्थल के रूप में मानते हैं और वहां जाते हैं। किन्तु आज आदिबद्री नामक स्थान से बहने वाली नदी बहुत दूर तक नहीं जाती एक पतली धारा की तरह जगह-जगह दिखाई देने वाली इस नदी को ही लोग सरस्वती कह देते हैं।

वैदिक और महाभारत कालीन वर्णन के अनुसार इसी नदी के किनारे ब्रह्मावर्त था, कुरुक्षेत्र था, लेकिन आज वहां जलाशय हैं। जब नदी सूखती है तो जहां-जहां पानी गहरा होता है, वहां-वहां तालाब या झीलें रह जाती हैं और ये तालाब और झीलें अर्ध्दचन्द्राकार शक्ल में पायी जाती हैं। आज भी कुरुक्षेत्र में ब्रह्मसरोवर या पेहवा में इस प्रकार के अर्ध्दचन्द्राकार सरोवर देखने को मिलते हैं, लेकिन ये भी सूख गए हैं। लेकिन ये सरोवर प्रमाण हैं कि उस स्थान पर कभी कोई विशाल नदी बहती रही थी

ऋग्वेद में सरस्वती नदी को नदीतमा की उपाधि दी गई है। वैदिक सभ्यता में सरस्वती ही सबसे बड़ी और मुख्य नदी थी। इसरो द्वारा किए गए शोध से पता चला है कि आज भी यह नदी हरियाणा, पंजाब और राजस्थान से होती हुई भूमि के नीचे से होकर बहती है। सरस्वती एक विशाल नदी थी। पहाड़ों को तोड़ती हुई निकलती थी और मैदानों से होती हुई समुद्र में जाकर विलीन हो जाती थी। इसका वर्णन ऋग्वेद में बार-बार आता है। कई मंडलों में इसका वर्णन है। ऋग्वेद वैदिक काल में इसमें हमेशा जल रहता था। सरस्वती आज की गंगा की तरह उस समय की विशाल नदियों में से एक थी। उत्तर वैदिक काल और महाभारत काल में यह नदी बहुत सूख चुकी थी। तब सरस्वती नदी में पानी बहुत कम था, लेकिन बरसात के मौसम में इसमें पानी आ जाता था। भूगर्भी बदलाव की वजह से सरस्वती नदी का पानी गंगा में चला गया, कई विद्वान मानते हैं कि इसी वजह से गंगा के पानी की महिमा हुई, भूचाल आने के कारण जब जमीन ऊपर उठी तो सरस्वती का पानी यमुना में गिर गया। इसलिए यमुना में सरस्वती का जल भी प्रवाहित होने लगा। सिर्फ  इसीलिए प्रयाग में तीन नदियों का संगम माना गया जबकि यथार्थ में वहां तीन नदियों का संगम नहीं है। वहां केवल दो नदियां हैं। सरस्वती कभी भी इलाहाबाद तक नहीं पहुंची। ऋग्वेद में संदर्भ- सरस्वती नदी का ऋग्वेद की चौथे पुस्तक छोड़कर सभी पुस्तकों में कई बार उल्लेख किया गया है। केवल यही ऐसी नदी है जिसके लिए ऋग्वेद की छंद संख्या 6.61, 7.95 और 7.96 में पूरी तरह से समर्पित भजन दिए गए है।

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वैदिक काल में सरस्वती की बड़ी महिमा थी और इसे परम पवित्र नदी माना जाता था, क्योंकि इसके तट के पास रहकर तथा इसी नदी के पानी का सेवन करते हुए ऋषियों ने वेदों को रचा और वैदिक ज्ञान का विस्तार किया। इसी कारण सरस्वती को विद्या और ज्ञान की देवी के रूप में भी पूजा जाने लगा। ऋग्वेद में केवल नदी देवी के रूप में वर्णित है ,इसकी वंदना तीन संपूर्ण तथा अनेक प्रकीर्ण मंत्रों में की गई है, किंतु ब्राह्मण गं्रथों में इसे वाणी की देवी या वाच के रूप में देखा गया क्योंकि तब तक यह लुप्त हो चुकी थी परंतु इसकी महिमा लुप्त नहीं हुई और उत्तर वैदिक काल में सरस्वती को मुख्यतः वाणी के अतिरिक्त बुद्धि या विद्या की अधिष्ठात्री देवी भी माना गया है और ब्रह्मा की पत्नी के रूप में इसकी वंदना के गीत गाए गए है। ऋग्वेद मे सरस्वती को नदीतमा की उपाधि दी गई है।

उत्तर वैदिक काल और महाभारत काल में यह नदी बहुत सूख चुकी थी। तब सरस्वती नदी में पानी बहुत कम था। लेकिन बरसात के मौसम में इसमें पानी आ जाता था। भूगर्भी बदलाव की वजह से सरस्वती नदी का पानी गंगा मे चला गया, कई विद्वान मानते है कि इसी वजह से गंगा के पानी की महिमा हुई, भूचाल आने के कारण जब जमीन ऊपर उठी तो सरस्वती का पानी यमुना में गिर गया। इसलिए यमुना में सरस्वती का जल भी प्रवाहित होने लगा।

सरस्वती नदी पर शोध

एक हिंदी टीवी चैनेल के अनुसार,सन् 1874 में एक अंग्रेज विद्वान सीएफ ओल्डहम का भारत के रेगिस्तान में खोई हुई सरस्वती एवं अन्य नदियां नामक लेख एक शोध पत्रिका में छपा था। उसके बाद तो समय-समय पर कई वैज्ञानिकों ने सरस्वती नदी पर शोध किया और यह कार्य आगे बढ़ता रहा। लेकिन हाल ही में विलुप्त सरस्वती नदी की खोज में एक बड़ी कामयाबी हाथ लगी है।

कहा जा रहा है कि यमुनानगर के आदिबद्री से महज पांच किलोमीटर की दूरी पर पिछले महीने के आखिरी हफ्ते में सरस्तवी नदी की खोज को लेकर खुदाई शुरू हुई थी, जिसमें धरातल से महज सात-आठ फीट की खुदाई पर ही वहां जलधारा एकाएक फूट पड़ी। सरस्वती को पुनर्जीवित करने के लिए की जा रही खोदाई के दौरान मिले खनिज लवणों के ओएसएल (जिन पर सूर्य की किरणें न पड़ी हों) के नमूने की जांच से पता चलेगा कि इस क्षेत्र में सरस्वती नदी कब बहती थी।

उधर, विलुप्त सरस्वती की धारा फिर से धरती पर मिलने की खबर को लेकर पुरातत्व विभाग असमंजस में हैं और इस मामले में कोई टिप्पणी करने से गुरेज कर रहा है। वहीं, जानकारों के अनुसार इसे सरस्वती नदी का जल माना जा रहा है। ये पानी 7 फीट की खुदाई पर मिला है। हालांकि, इसकी कोई आधिकारिक पुष्टि अभी नहीं की गई है।

आदिबद्री से पांच किलोमीटर दूर मुगलवाली गांव में मनरेगा के तहत दर्जनों मजदूर काम कर रहे थे। करीब आठ फीट की गहराई तक खुदाई करने के बाद कुछ मजदूरों को अचानक जमीन से पानी की धारा निकलते दिखी। पहले थोड़ा पानी निकला, लेकिन जैसे ही ज्यादा खुदाई की तो पानी की मात्रा बढ़ती चली गई। पानी निकलते ही मजदूर वहां जमा हो गए। देखते ही देखते चार जगहों पर सरस्वती का पानी निकलने लगा।

खबरों अनुसार उक्त घटना के बाद जमीन के नीचे बह रही सरस्वती नदी को धरातल पर लाने के लिए मनरेगा के तहत 15 दिन में तीन किलोमीटर खुदाई की जा चुकी है। इतनी कम गहराई पर नीली बजरी व चमकदार रेत, अन्य नदियों के समान ही पानी निकला। इसके बाद मजदूरों ने 8-10 खड्डे खोदे और 9-10 फुट पर सभी जगह पानी फुट पड़ा।

धरती से सरस्वती का पानी निकलने की खबर पूरे जिले में फैल गई है। जानकारी के अनुसार, डीसी डॉ. एसएस फूलिया और एसडीएम बिलासपुर भी मौके पर पहुंचे। मुगलवाली गांव में उपायुक्त ने कहा कि सरस्वती नदी का जिक्र पुरानों में मिलता था और आज वह हकीकत के रूप में धरती पर अवतरित हो गई है। उन्होंने बताया कि सरकार ने मनरेगा परियोजना के तहत इस नदी की खुदाई शुरू की गई थी और अब सरस्वती नदी का अस्तिव उभरने लगा है।

बताया जा रहा है कि यह पवित्र जलधारा यमुनानगर से निकलकर छह अन्य जिलों से होकर बहेगी। नदी का अगला पड़ाव देने के लिए 20 सदस्यीय कमेटी का गठन किया जा रहा है, जिसमें सरस्वती शोध संस्थान के अध्यक्ष शामिल होंगे।

नमूने लेने पहुंचे कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के भूगर्भ विज्ञान विभाग के अध्यक्ष डॉ. एआर चौधरी ने बताया कि ओएसएल नमूने की जांच से ही नदी की पौराणिकता का पता लगाया जा सकता है।

उन्होंने बताया कि पहाड़ों व ग्लेशियर से चलते समय नदी अपने साथ वहां के खनिज लवणों को पानी में मिला कर लाती है। मुगलवाली में खोदाई स्थल पर डॉ. एआर चौधरी अपनी टीम विक्रम शर्मा व राकेश रंगा के साथ पहुंचे। टीम ने मुगलवाली व रूलाहेड़ी से भूमि से नीचे से निकली सरस्वती धारा के कंकरीट व पत्थरों के नमूने लिए। मुगलवाली में खोदाई की जगह से तीन चार जगहों से ओएसएल के नमूने एकत्र किए। रूलाहेड़ी से उन्होंने कंकरीट, पत्थरों व बालू के नमूने लिए।

ऊंचे हिमालय से उद्गम

पहले साक्ष्य ने तो उस परिकल्पना पर मुहर लगा दी कि सरस्वती नदी घग्घर की तरह हिमालय की तलहटी की जगह सिंधु और सतलुज जैसी नदियों के उद्गम स्थल यानी ऊंचे हिमालय से निकलती थी. अध्ययन की शुरुआत घग्घर नदी की वर्तमान धारा से कहीं दूर सरहिंद गांव से हुई और पहले नतीजे ही चौंकाने वाले आए. सिन्हा बताते हैं, ”दरअसल 1980 के यशपाल के शोधपत्र में इस जगह पर घघ्घर-हाकरा नदियों की लुप्त हो चुकी संभावित सहायक नदी की मौजूदगी की बात कही गई थी. हम इसी सहायक नदी की मौजूदगी की पुष्टि के लिए साक्ष्य जुटा रहे थे.” लेकिन जो नतीजा सामने आया, उससे सरहिंद में जमीन के काफी नीचे साफ पानी से भरी रेत की 40 से 50 मीटर मोटी परत सामने आई. यह घाटी जमीन के भीतर 20 किमी में फैली है.

इसके बीच में पानी की मात्रा किनारों की तुलना में कहीं अधिक है. खास बात यह है कि सरहिंद में सतह पर ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता जिससे अंदाजा लग सके कि जमीन के नीचे इतनी बड़ी नदी घाटी मौजूद है. बल्कि यहां तो जमीन के ठीक नीचे बहुत सख्त सतह है. पानी की इतनी बड़ी मात्रा सहायक नदी में नहीं बल्कि मुख्य नदी में हो सकती है. सिन्हा ने बताया,”भूमिगत नदी घाटी में मिले कंकड़ों की फिंगर प्रिंटिंग बताती है कि यह नदी ऊंचे हिमालय से निकलती थी. कोई 1,000 किमी. की यात्रा कर अरब सागर में गिरती थी. इसके बहाव की तुलना वर्तमान में गंगा नदी से की जा सकती है.”

सरहिंद के इस साक्ष्य ने सरस्वती की घग्घर से इतर स्वतंत्र मौजूदगी पर मुहर लगा दी. इस शोध में तैयार नक्शे के मुताबिक, सरस्वती की सीमा सतलुज को छूती है. यानी सतलुज और सरस्वती के रिश्ते की जो बात ओल्डहैम ने 120 साल पहले सोची थी, भू-भौतिकीय साक्ष्य उस पर पहली बार मुहर लगा रहे थे.

आखिर कैसे सूखी सरस्वती?
तो फिर ये नदियां अलग कैसे हो गईं? विलुप्त सरस्वती नदी की घाटी का पिछले 20 साल से अध्ययन कर रहे पुरातत्व शास्त्री और इलाहाबाद पुरातत्व संग्रहालय के निदेशक राजेश पुरोहित बताते हैं, ”समय के साथ सरस्वती नदी को पानी देने वाले ग्लेशियर सूख गए. इन हालात में या तो नदी का बहाव खत्म हो गया या फिर सिंधु, सतलुज और यमुना जैसी बाद की नदियों ने इस नदी के बहाव क्षेत्र पर कब्जा कर लिया. इस पूरी प्रक्रिया के दौरान सरस्वती नदी का पानी पूर्व दिशा की ओर और सतलुज नदी का पानी पश्चिम दिशा की ओर खिसकता चला गया. बाद की सभ्यताएं गंगा और उसकी सहायक नदी यमुना (पूर्ववर्ती चंबल) के तटों पर विकसित हुईं. पहले यमुना नदी नहीं थी और चंबल नदी ही बहा करती थी. लेकिन उठापटक के दौर में हिमाचल प्रदेश में पोंटा साहिब के पास नई नदी यमुना ने सरस्वती के जल स्रोत पर कब्जा कर लिया और आगे जाकर इसमें चंबल भी मिल गई.”

यानी सरस्वती की सहायक नदी सतलुज उसका साथ छोड़कर पश्चिम में खिसककर सिंधु में मिल गर्ई और पूर्व में सरस्वती और चंबल की घाटी में यमुना का उदय हो गया. ऐसे में इस बात को बल मिलता है कि भले ही प्रयाग में गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम का कोई भूभौतिकीय साक्ष्य न मिलता हो लेकिन यमुना के सरस्वती के जलमार्ग पर कब्जे का प्रमाण इन नदियों के अलग तरह के रिश्ते की ओर इशारा करता है. उधर, जिन मूल रास्तों से होकर सरस्वती बहा करती थी, उसके बीच में थार का मरुस्थल आ गया. लेकिन इस नदी के पुराने रूप का वर्णन ऋग्वेद में मिलता है. ऋग्वेद के श्लोक (7.36.6) में कहा गया है, ”हे सातवीं नदी सरस्वती, जो सिंधु और अन्य नदियों की माता है और भूमि को उपजाऊ बनाती है, हमें एक साथ प्रचुर अन्न दो और अपने पानी से सिंचित करो.”

आइआइटी कानपुर के अध्ययन में भी नदी का कुछ ऐसा ही पुराना रूप निखर कर सामने आता है. साउंड रेसिस्टिविटी पर आधारित आंकड़े बताते हैं कि कालीबंगा और मुनक गांव के पास जमीन के नीचे साफ पानी से भरी नदी घाटी की जटिल संरचना मौजूद है. इन दोनों जगहों पर किए गए अध्ययन में पता चला कि जमीन के भीतर 12 किमी से अधिक चौड़ी और 30 मीटर मोटी मीठे पानी से भरी रेत की तह है. जबकि मौजूदा घग्घर नदी की चौड़ाई महज 500 मीटर और गहराई पांच मीटर ही है. जमीन के भीतर मौजूद मीठे पानी से भरी रेत एक जटिल संरचना दिखाती है, जिसमें बहुत-सी अलग-अलग धाराएं एक बड़ी नदी में मिलती दिखती हैं.

सिन्हा के शब्दों में, ”यह जटिल संरचना ऐसी नदी को दिखाती है जो आज से कहीं अधिक बारिश और पानी की मौजूदगी वाले कालखंड में अस्तित्व में थी या फिर नदियों के पानी का विभाजन होने के कारण अब कहीं और बहती है.” अध्ययन आगे बताता है कि इस मीठे पानी से भरी रेत से ऊपर कीचड़ से भरी रेत की परत है. इस परत की मोटाई करीब 10 मीटर है. गाद से भरी यह परत उस दौर की ओर इशारा करती है, जब नदी का पानी सूख गया और उसके ऊपर कीचड़ की परत जमती चली गई. ये दो परतें इस बात का प्रमाण हैं कि प्राचीन नदी बड़े आकार में बहती थी और बाद में सूख गई. और इन दोनों घटनाओं के कहीं बहुत बाद घग्घर जैसी बरसाती नदी वजूद में आई.

सरस्वती से गंगा के तट पर पहुंची सभ्यता
वैज्ञानिक साक्ष्यों की श्रृंखला यहीं नहीं रुकती. इसी शोध टीम के सदस्य और दिल्ली विश्वविद्यालय में जियोलॉजी के सहायक प्रोफेसर डॉ. शशांक शेखर बताते हैं, ”कालीबंगा में घग्घर नदी के दोनों ओर जिस तरह के मिट्टी के ढूह मिलते हैं, उस तरह के ढूह किसी बड़ी नदी की घाटी के आसपास ही बन सकते हैं.” और जिस तरह से कालीबंगा के ढूहों के नीचे से हड़प्पा काल के अवशेष मिलते हैं, उससे इस बात को बल मिलता है कि सरस्वती नदी और हड़प्पा संस्कृति के बीच कोई सीधा रिश्ता था.

कालीबंगा अकेला पुरातत्व स्थल नहीं है बल्कि राजस्थान के हनुमानगढ़ और श्रीगंगानगर जिलों में ऐसे 12 बड़े ढूह चिन्हित किए गए हैं. हड़प्पा सभ्यता के अवशेष पश्चिम में गुजरात तक और पूर्व में मेरठ तक मिले हैं. वहीं इलाहाबाद के पास कौशांबी में हड़प्पा सभ्यता का नया चरण शुरू होने के पुरातात्विक साक्ष्य मिले हैं. इन पुरातात्विक तथ्यों का विश्लेषण करते हुए मेरठ पुरातत्व संग्रहालय के निदेशक डॉ. मनोज गौतम कहते हैं, ”घग्घर-हाकरा या वैदिक सरस्वती के तट पर सिर्फ पूर्व हड़प्पा काल के अवशेष मिलते हैं. जबकि कौशांबी के पास पूर्व हड़प्पा और नव हड़प्पा काल के अवशेष एक साथ मिले हैं. यह संदर्भ सरस्वती नदी के लुप्त होने और गंगा-यमुना के तट पर नई सभ्यता के विकसित होने के तौर पर देखे जा सकते हैं.”

-Based on various internet sources

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