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हमारे देश भारत में तो त्योहारों की भरमार है और हो भी क्यों न, त्योहार ही तो हैं जो आंतरिक एवं बाह्य दोनों तरह की शुद्धि सहज ही करवा देतें हैं, प्रेम का संदेश प्रसारित करते हैं तथा मन की शान्ति को पुनःस्थापित कर कर्मशीलता को सक्रिय किया करते हैं | यहाँ तक कि “विश्वबन्धुत्त्व” की नींव को मजबूत करने में भी त्योहारों कायोगदान अत्यंत उल्लेखनीय है | दीपावली का जोश पुरे देश की तरह हमारे हिमाचल में भी पुरे जोरो शोरो पर होता है , यह बात अलग है की  बदलते समय के साथ साथ दीपावली को मनाने का ढंग भी बदलता है |

  इस  लेख में मैं हिमाचल के काँगड़ा जिले की दीपावली के बारे में लिखने जा रहा हू…

तो सबसे पहले चलते है आज से 10 -12  साल पहले , जब में स्कूल में पड़ा करता था | दीपावली का एक अलग ही माहोल हुआ करता था , दशहरे के तुरंत बाद ही गाम में दीपावली की तैयारिया शुरू हो जाती थी ,इन दिनों में धान की फसल काटने का काम जोरो शोरो से चल रहा होता था , धान की फसल निकालने के बाद ,दशहरे के तुर्रंत बाद स्थानीय लोग दीपावली की तैयारिया शुरू कर देते थे , जिसमे मुख्यता कच्चे घरो को लाल मिटी की लिपाई जिसे पोचा भी कहा जाता है ,  की जाती थी ,और दीपावली के आने से पहले यह सब खत्म करने का लक्ष्य होता था।  कुम्हार लोगो के लिए यह सीजन बहुत ही बिशेष होता था क्युकी लोगो के घर घर में मिटी के दीपक जिसे  ओली भी कहते है उसको पहुचना उनकी जिम्मेवारी होती थी, जिसके बदले में उन्हें नकद पैसे या अनाज मिलता था ,किन्तु समय बदलने के साथ मकान सीमेंट के हो गए जिन्हे आधुनिक रंग किये जाने लगे और कुम्हार लोग की कला की चमक मोमबत्तियों के सामने फीकी होने लगी , आज यह लोग इस कला और अपनी आजीविका के लिए संघर्षरत है।

दशहरे के बाद से ही छोटे छोटे कस्वों में रामलीलाओं का दोर शुरू हो जाता है जो दीपावली के कुछ दिन बाद तक चलता है, एक और दिलचस्प बात में यहाँ बता रहा हु जो शायद कुछ लोगो को पता नही होगी त्यों दियाळी नाम का एक बच्चो  का त्यौहार होता है जिसे बच्चे दीपावली से तीन चार दिन पहले मानना शुरू कर देते है , इसमें गांब के बच्चे शाम को इक्क्ठा होते है औरबांस के डंडे पर घास बाँध कर उसे मशाल की तरह धान के खाली खेतो में लहराते है | असल में त्यों का मतलबहोता है धान काटने के बाद जो ब्यर्थ घास रह जाती है उस से बनायीं गयी मशाल , यह त्यौहार बड़ो की निगरानी में ही मनाया जाता है।  कहा जाता है की जिस  जमीन पर त्यो फिर जाता है ( मतलब बच्चे यह मशाल ले कर घूम जाते है ) वहां पर गेहू की फसल बहुत अच्छी होती है  और ऐसा भी माना जाता है की त्यों के जला दिए जाने पर अगले बर्ष धान में अनावस्यक खरपतबार पैदा नही होता है

shubh deepawali
shubh deepawali

धीरे धीरे यह परम्परा अब लुप्त हो गयी है,कम से कम अपने गॉव  में तो मैंने किसी को यह त्यौहार मनाते कई बरसो से नही देखा जैसे जैसी दीपावली पास आते जाती है बाज़ारो में रौनक बढ़ती जाती है , लोग इस अवसर पर खरीददारी करना शुभ मानते है , हिमाचल  में  भी लोग दीपावली औरधनतेरश पर जमकर आभूषण खरीदते है ,साथ ही घरेलु  उपकरण जैसे टीवी ,फ्रिज  आदि को भी इन दिनों लोग धड़ले खरीदते है दीपावली के दिन लोगो अपने घरो को साफ करने के बाद आँगन और बालकनी इत्यादि में एक परम्परागत रंगोली जैसी कलाकारी करते है ,इसमें लोग थोड़े से चावल पानीमें भिगोने के बाद उन्हें पीस कर उसकी घोल से रंगोली बनाते है इन्हे लिखणु भी कहते है

दीपावली बाले दिन  कुम्हार के दिए हुए मिटटी के दीये धोये जाते है और फिर उनमे देसी घी और सरसो का तेल आदि  दिए जलाये जाते है, इन्हे ओली भी कहते है , ओलीका पूजन लक्ष्मी पूजा के साथ साथ  पितरो की शांति से भी जोड़ कर देखा जाता है जब यह दिये जलाये जाते है तो घर का मुखिया “लिया पितरो तेरा चोदियां बांसा दे दिये ” कुछ इस प्रकार  कहता है

diwali dishes in himachal pradesh
diwali dishes in himachal pradesh

दीपावली के दिन बहुत से लोग घरो में नए चावलों की भी शुरुआत करते है ,  रात को तरह तरह के पकवान जैसे बबरु इत्यादि बनाये जाते है ,रात भर आतिशबाजी कादौर जारी रहता है गॉव में दीपावली का परिवेश आज  बदल गया है , जहा पर दीपावली मनाने  के तोर तरीके बदल  रहे है ,वही कुछ सामाजिक बुराईया खत्म होने का नाम ही नही ले रही है,जुआ भी जिसमे एक है , गॉव में जुए ने उग्र रूप धारण कर लिया है ,दीपावली पर छोटी छोटी दुकानों , कुहाडो ( धान के घास का ढेर ) के पीछे गैर कानूनी रूप से खूबजुआ खेला जाता है , जो की शराब के बिना अधुरा होता है। बहुत से लोगो अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई को पल भर में जुए मैं उड़ा देते है जिसका परिणाम घर मेंकलह क्लेश होता है | निश्चित रूप से हमे ऐसी समाजिक बुराईयो को दूर करना होगा , ताकि प्रकाश और खुशी का यह त्यौहार जीवन में वास्तविक प्रकाश और खुशिया लाये…

शुभ दीपावली !!!

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