बिलासपुर या कहलूर कि पारम्परिक धाम

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बिलासपुर या कहलूर कि पारम्परिक धाम

हिमाचली धाम ,मुंह में पानी लाने के लिए सिर्फ यह शब्द ही काफी है । शादी ब्याह या अन्य मांगलिक कार्यक्रमों पर आयोजित होने वाले सामूहिक भोजन को हिमाचल में धाम कहते हैं। धाम का मुख्य आकर्षण होता है सभी मेहमानों को समान रूप से, जमीन पर बिछी पंगत पर एक साथ बैठाकर खाना खिलाना। खाना आमतौर पर पत्तल पर ही परोसा जाता है और किसी-किसी क्षेत्र में साथ में दोने भी रखे जाते हैं। हिमाचल के अलग अलग क्षेत्रों में धाम को बनाने से लेकर परोसने तक अलग अलग तरीका अपनाया जाता है। हो सकता है तरीका और धाम बनाने में प्रयोग होने वाली चीजें एक जैसी ही हो लेकिन बोली में विविधता होने के कारण उसको अलग नाम से जाना जाता हो। आईए आज मैं आपको हिमाचल के बिलासपुर जिले में धाम कैसे बनती है? क्या चीजें प्रयोग होती हैं और किस-किस का योगदान रहता? उसके बारे में बताती हूँ।

बिलासपुर या जो पहले कहलूर हुआ करता था ऐसा जिला है जिसकी सीमा मंडी, हमीरपुर, ऊना, सोलन और पंजाब से लगती है। तो बिलासपुर में विभिन्न रंग देखने को मिलते हैं। सीमांत क्षेत्रों में पड़ोसी जिलों और राज्य के रीति-रिवाजों के हिसाब से धाम बनाई और परोसी जाती है। बिलासपुर में धाम को ‘भटी’, ‘कारज’ या ‘जग’ कहते हैं। भटी के लिए पहले से ही सारी तैयारियां हो जाती हैं। जिनके बारे में मैं विस्तार से बता रही हूँ।

समदां :

खाना बनाने के लिए जो लकड़ियां प्रयोग की जाती हैं उनको हमारे यहाँ समदां कहा जाता है। समदां करने के लिए सबसे पहले पंडित को पूछकर एक शुभ दिन का चुनाव किया जाता है और फिर कारज करने वाला सारे गांव के लोगों को बुलाता है। हिमाचल में अभी भी लोग सामुदायिक जीवन जीने में विश्वास रखते हैं। समंदा वाले दिन सब पुरुष लकड़ियां काटने में व्यस्त हो जाते हैं और औरतें उनके लिए खाना बनातीं हैं और शुभ गीत गाती हैं।

समधा में गांव के लोग और रिश्तेदार दुल्हे या दुल्हन पक्ष के लोगो कोई लकड़ी काटने में मदद करते है

वोटी यानी हिमाचली धाम के कुक 

बोटी- हिमाचली धाम के अस्तित्व को बनाए रखने का श्रेय यहां के बोटियों को दिया जाता है जो पीढ़ी- दर- पीढ़ी इस पेशे से जुड़े हुए हैं। हिमाचल के विवाह उत्सव हों अथवा रिटायरमेंट, किसी का जन्मदिन अथवा चौथा श्राद्ध( चबरखा), लोग पूरे गांव को धाम को चखने का मौका देते हैं। मुख्य बोटी सहायक बोटियों की बाटियों में सब्जी डालता है। वे आगे जाकर धोती पहनकर टाट पट्टी पर बैठे लोगों को पत्तल पर खाना परोसते हैं।
विवाहों के मौसम में धाम बनाने व परोसने वाले बोटियों (रसोइयों) की टीमें बहुत व्यस्त रहती हैं। इसलिए बोटी को पहले ही साई या बुकिंग दे दी जाती है। वह सामान की लिस्ट और भटी में बनने वाले सारे व्यंजनों का चुनाव कर लिया जाता है। बिलासपुर में लगभग 30 साल पहले रामू दयाराम, छज्जू व प्रीत लाल, प्रेम लाल व नंद बोटी धाम बनाने के लिए बहुत मशहूर है। नंद बोटी और वो और उसकी टीम दूर दूर खाना बनाने जाते हैं। नंद बोटी के हाथ की बनी कढी का स्वाद आप भूल नहीं सकते।

चर(कांगड़ा में तीण ) पर चरोटी या बटलोही में खाना पकाते बोटी

चर

खाना बनाने के लिए 7 से 10 फुट लंबा जमीन में गड्ढा खोदा जाता है जिसको चर कहते हैं। इसके ऊपर बड़े बड़े बरतन रखे जाते हैं और समदां डाल कर खाना बनाया जाता है।

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बरतन- चरोटी या बटलोही:

धाम के व्यंजन बड़े बड़े पीतल के बरतनों में बनाए जाते हैं जिनको चरोटी या बटलोही कहा जाता है। उसके अलावा कड़छ, तैंथा, कड़छी, कड़ाह और बाटी प्रयोग की जाती है। चावल पकाकर बड़े से बांस के टोकरे जिसको खारा कहा जाता है और परोसने के लिए बांस से बनी छोटी टोकरी प्रयोग होती है जिसको बिलासपुर में छड़ोलू कहा जाता है।

 

चरोटी या बटलोही और कडाही

काम्मे –

काम्मे बिलासपुर में गांव वाले लोगों को ही कहते हैं जो धाम वाले का घर काम कराने आते हैं। काम कराने वाले या काम्मे सुबह ही कारज वाले के घर पहुंच जाते हैं और खाना बनाने की तैयारी शुरू कर देते हैं जैसे कद्दू छीलना, लहसुन-प्याज छीलना, दालें धोना।

धाम के व्यंजन-

बिलासपुरी धाम में 5-7 दालें और सब्जियां बनाईं जाती हैं। यहाँ बनाई जाने वाली धुली उड़द की दाल जिसको धोंई दाल कहते हैं, का अलग ही जायका है। इसे बहुत ज्यादा घी में मसालों के साथ अच्छे से पकाया जाता है और इसका जो असली स्वाद है वो बिलासपुरी बोटियों के अलावा कोई ला ही नहीं सकता। अगर आपने बिलासपुरी धाम में धोंई दाल नहीं खाई तो कुछ भी नहीं खाया। इसके अलावा तरी वाले फ्राई आलू या पालक वाले कचालू या घंडयाली का मदरा भी बनाया जाता है। साबुत उड़द, मूंग दाल, चने की दाल औहरी वाली,राजमाह, रौंगी, सफेद चने, आदि बनाए जाते हैं। काले चने में कद्दू या छुआरे डालकर अमचूर या इमली का खट्टा बनाया जाता है। पकौड़े वाली कढी भी धाम में शामिल होते हैं। कहीं कहीं तो कुचालू का पलदा भी बनाया जाता है। मीठे में बदाणा या कद्दू का मीठा बनाया जाता है। कुछ संपन्न परिवार के लोग इन सबके अलावा मटर पनीर, बासमती चावल और गरी का मीठा भी खिलाते हैं। गर्म-गर्म भात के साथ इन व्यंजनों को खाने का स्वाद अनोखा होता है जो आपको फाईव स्टार होटल या खड़े होकर टेबल से प्लेट उठाकर खाने में नहीं आता। 1958 तक बिलासपुर में धाम देसी घी में बनाई जाती थी लेकिन अब महंगाई के कारण देसी घी की बजाय डालडा और रिफाइंड तेल प्रयोग किया जाता है।




परोसने का तरीका-

खिलाने का तरीका बहुत ही सादा होता है और सबको लाईन या बैंठ में बिठाकर समान रूप से खाना परोसा जाता है। आंगन में बैठने के लिए पहले खजूर वाली सफा या पंद बिछाई जाती थी जिसको अब मुख्य बोटी खाना बनाता है और सहायक बोटी परोसने में मदद करते हैं। खाने के लिए टौर या सागवान के पत्ते की पत्तलें प्रयोग की जाती हैं लेकिन अब लोग इन लाभकारी प्लेटों को छोड़कर प्लास्टिक की डिस्पोज़ल प्लेटें प्रयोग करने लग गए हैं। बोटी खाना परोस रहे होते हैं और गांव या घर के बच्चे पानी पिलाते हैं। हर बैंठ के बाद पनीहारा या बरतन मांजने वाला झाड़ू लगाता है और पत्तलें उठाता है। कुछ लोग परिवार के लोगों जो खाना खाने नहीं आते, उनके लिए खाना ले जाते हैं जिसको बिलासपुर में परीया कहा जाता है। 

पनीहारा-

भटी के पानी भरने, सफाई करने और बरतन साफ करने वाले को पनीहारा कहा जाता है। बोटी को साई देने के साथ ही पनीहारे को भी साई दे दी जाती है। पनीहारे का काम पत्तलें उठाना, लोगों के खाना खाने के बाद झाड़ू लगाना और बरतन साफ करना होता है।

अंत में पनीहारा सारे बरतन धोता है और सबके बरतन वापिस करता है। इसको कहलूरी बोली में निछड़याह कहा जाता है। कारज करने वाला सब बोटियों और पनीहारों को टीका लगाकर भेजता है। तो अगर आपको कभी भी कहलूरी या बिलासपुरी धाम खाने का मौका मिलता है तो जरूर इसका मजा लें।


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