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दुनिया में वैसे तो कई परंपराएं हैं जिनके बारे में सुनकर हम आश्चर्य में पड़ जाते हैं। कुछ ऐसी परंपराएं होती हैं जिन्हें आप कभी भी नहीं भुला पाते हैं। इन्हीं में से एक राजस्थान के जोधपुर की एक परंपरा है। जोधपुर की अजीबोगरीब परंपरा को सुनकर आप चौंक जाएंगे। यह परंपरा एक उत्सव को लेकर है। इस उत्सव का नाम है ‘धींगा गवर’।

इस उत्सव में लड़कियां कुंवारे लड़कों को दौड़ा-दौड़ा कर डंडा मारती हैं। यहां की मान्यता के अनुसार डंडा अगर किसी लड़के पर लगता है तो उसका ब्याह होना पक्का समझा जाता है। इस उत्सव को बेंतमार गणगौर के रूप में जाना जाता है। यहां रात के समय हाथों में बेंत लिए महिलाएं और युवतियां अलग-अलग तरह के स्वांग रचकर सड़कों पर निकल जाती हैं। बेंत की पिटाई से बचने के लिए पुरुष और युवक भागते-दौड़ते नजर आते हैं।

आप सब ने बरसाने की प्रसिद्ध बेंतमार होली के बारे में तो सुना ही होगा। आज हम आपको राजस्थान के मारवाड़ प्रान्त खासकर जोधपुर में मनाए जाने वाले इसी तरह के एक उत्सव के बारे में बता रहे है।  इस उत्सव का नाम है ‘धींगा गवर’। इस उत्सव में लड़कियां कुंवारे लड़कों को दौड़ा-दौड़ाकर डंडा मारती हैं। यहां की मान्यता के अनुसार डंडा अगर किसी लड़के पर लगता है तो उसका ब्याह होना पक्का समझा जाता है। इस उत्सव को बेंतमार गणगौर के रूप में जाना जाता है।

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राजस्थान में धींगा गवर उत्सव कई मायनों में खास है. महिलाओं के इस त्योहार में कला, संस्कृति और उनकी आज़ादी के कई रंग देखे जा सकते हैं. लेकिन इसमें केवल स्त्रियां ही भाग लेती हैं. आख़िर क्यों है ऐसा?

इस त्योहार के साथ सोलह अंक का सुंदर संयोग भी जुड़ा है। धींगा गवर मेला गवर माता की पूजा के सोलहवें दिन मनाया जाता है। तीजणियां सोलह दिन तक उपवास रखती हैं। फिर सोलह शृंगार कर धींगा गवर माता के दर्शन करने निकलती हैं। इस दौरान जो भी महिलाएं सोलह व्रतधारी होती हैं, उनकी बांह पर सोलह गांठों वाला पवित्र सूत बंधा होता है। इसे सोलहवें दिन उतार कर गवर माता की बांह पर इस उद्देश्य से बांध दिया जाता है कि अगले जन्म में वह अखंड सौभाग्यवती हो। गवर माता को पार्वती का रूप माना जाता है। ईश्वर शिव के प्रतीक होते हैं। इसका पूजन सुहागिनें अपने इसी जन्म के भरतार की सुखद दीर्घायु के लिए करती हैं, जबकि धींगा गवर का पूजन अगले जन्म में उत्तम जीवन साथी मिलने की कामना के साथ किया जाता है।

धींगा गवर के पूजन में यह भी मान्यता है कि इसे सुहागिनों के साथ-साथ कुंवारी कन्याएं और विधवाएं भी कर सकती हैं। चूंकि पूजा का महात्म्य अगले जन्म के लिए कामना करना होता है, इसलिए कुंवारी कन्याएं भी इसी उद्देश्य से और विधवा महिलाएं भी इस प्रार्थना के साथ पूजा करती हैं। मारवाड़ में लगभग 80-100 वर्ष पहले यह मान्यता थी कि गवर के दर्शन पुरुष नहीं करते क्योंकि तत्कालीन समय में ऐसा माना जाता था कि जो पुरुष धींगा गवर के दर्शन कर लेता था, उसकी मृत्यु हो जाती थी। ऐसे में धींगा गवर की पूजा करने वाली सुहागिनें अपने हाथ में बेंत या डंडा लेकर आधी रात के बाद गवर के साथ निकलती थीं। वे पूरे रास्ते गीत गाती हुई और बेंत लेकर उसे फटकारती हुई चलती थीं। बताया जाता है कि महिलाएं डंडा फटकारती थी ताकि पुरुष सावधान हो जाए और गवर के दर्शन करने की बजाय किसी गली, घर या चबूतरे की ओट ले लेते थे। कालांतर में यह मान्यता स्थापित हुई कि जिस युवा पर बेंत या डंडे की मार पड़ती थी, उसका जल्दी ही विवाह हो जाता था। इसी परंपरा के चलते युवा वर्ग इस मेले का अभिन्न हिस्सा बन गया है।

इस प्रतीकात्मक पर्व के कई अर्थ लगाए जाते हैं. कुछ के अनुसार यह महिलाओं को एक पर्व अपनी आज़ादी से, अपनी कल्पनाओं के हिसाब से मनाने देने का दिन है तो कुछ के अनुसार यह वस्तुतः शक्ति का आह्वान कर बुरी आत्माओं को बाहर करने का पर्व है. ताकि हर रोज़ शान्ति और आनंद का पर्व रहे

बेंत पड़ी तो ब्याह पक्का

मारवाड़ में लगभग 80-100 वर्ष पहले ये मान्यता थी कि धींगा गवर के दर्शन पुरुष नहीं करते। क्योंकि तत्कालीन समय में ऐसा माना जाता था कि जो भी पुरुष धींगा गवर के दर्शन कर लेता था उसकी मृत्यु हो जाती थी। ऐसे में धींगा गवर की पूजा करने वाली सुहागिनें अपने हाथ में बेंत या डंडा ले कर आधी रात के बाद गवर के साथ निकलती थी। वे पूरे रास्ते गीत गाती हुई और बेंत लेकर उसे फटकारती हुई चलती। बताया जाता है कि महिलाएं डंडा फटकारती थी ताकि पुरुष सावधान हो जाए और गवर के दर्शन करने की बजाय किसी गली, घर या चबूतरी की ओट ले लेते थे। कालांतर में यह मान्यता स्थापित हुई कि जिस युवा पर बेंत (डंडा) की मार पड़ती उसका जल्दी ही विवाह हो जाता। इसी परंपरा के चलते युवा वर्ग इस मेले का अभिन्न हिस्सा बन गया है।

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सोलह का सलोना संगम

इस त्योहार के साथ सोलह अंक का सुंदर संयोग भी जुड़ा है। धींगा गवर मेला गवर माता की पूजा के सोलहवें दिन मनाया जाता है। तीजणियां सोलह दिन तक उपवास रखती हैं, फिर सोलह शृंगार कर धींगा गवर माता के दर्शन करने निकलती हैं। इस दौरान जो भी महिलाएं सोलह व्रतधारी होती हैं उनकी बांह पर सोलह गांठों वाला पवित्र सूत बंधा होता है, जिसे सोलहवें दिन उतार कर गवर माता की बांह पर इस उद्देश्य से बांध दिया जाता है कि अगले जन्म में वह अखंड सौभाग्यवती हो।

धींगा गवर व गवर पूजन अलग-अलग

गवर माता को पार्वती का रूप माना जाता है। ईसर शिव के प्रतीक होते हैं। इसका पूजन सुहागिनें अपने इसी जन्म के भरतार की सुखद दीर्घायु के लिए करती है, जबकि धींगागवर का पूजन अगले जन्म में उत्तम जीवन साथी मिलने की कामना के साथ किया जाता है। धींगा गवर के पूजन में ये भी मान्यता है कि इसी सुहागिनों के साथ साथ कुंवारी कन्याएं और विधवाएं भी कर सकती है। चूंकि पूजा का महात्म्य अगले जन्म के लिए कामना करना होता है, इसलिए कुंवारी कन्याएं भी इसी उद्देश्य से और विधवा महिलाएं भी इस प्रार्थना के साथ पूजा करती हैं।

धींगा गवर कौन

धींगा गवर की पूजा विशेष रूप से मारवाड़ क्षेत्र में ही की जाती है। जोधपुर, नागौर और बीकानेर में धींगा गवर का उत्सव मनाया जाता है। ऐेतिहासिक तथ्यों के अनुसार ईसर एवं गवर शिव और पार्वती के प्रतीक हैं, जबकि धींगा गवर को ईसर की दूसरी पत्नी के रूप में मान्यता मिली हुई है। किवदंती के अनुसार धींगा गवर मौलिक रूप से एक भीलणी थी, जिसके पति का निधन उसकी यौवनावस्था में ही हो गया था और वो ईसर के नाते आ गई थी। इसलिए धींगा गवर चूंकि विधवा हो गई और उसे ईश्वर की कृपा से पुनः ईसर जैसे पति मिल गए, इसी तथ्य के मद्देनजर विधवाओं को भी इस त्योहार पर पूजन करने की छूट मिल गई थी।

इस उत्सव में पुरुषों को शरीक होने की इजाज़त नहीं होती है. इस जुलूस में शामिल होने की कोशिश करने पर महिलाओं के हाथ की छड़ी की हल्की सी मार उन्हें सहनी पड़ती है

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