यह तो हम सब जानते है कि हिमाचल देव भूमि है,यहाँ के देवी देवताओ और परम्पराओ से ही हिमाचल कि पहचान हैI अपनी इन परम्पराओ के साथ साथ हिमाचल में मेला का भी बहुत महतब है , हिमाचल में वसंत ऋतू के आगमन के साथ ही मेलो कि शुरुआत हो जाती है मंडी का शिवरात्रि ,पालमपुर का होली ,चंबा का मिंजर ,बिलासपुर का नलवाढ तो विश्व प्रशिध मेले है I और हर मेले के पीछे अपनी एक कहानी है ,इन्ही मेलो में से एक और मेला है जो भगवान शिव और पार्वती के एक रूप रली से जुड़ा हुआ है यह मेला शायद काँगड़ा जिले में ही मनाया जाता है I आइये जानते है रली शंकर के विवाह पर सम्पन्न होने वाले इस मेले के बारे में..
यह जो आपको रली विवाह के बारे में बता रहा हु अपनी जानकारी के आधार पर बता रहा हूँ,जब में बहुत छोटा था तो मेरे ताऊ जी कि लडकियाँ और चाचा जी कि लड़की और गांव कि अन्य लडकियां इस त्यौहार को बहुत धूमधाम से मनाती थी ,दुर्भाग्ग्य से मेरे चाचा जी कि एक लड़की जो सबसे जयादा इस त्यौहार में रूचि लेती थी वो आज हमे छोड़ कर इस दुनिया से विदा ले चुकी है ,लेकिन उनकी यादे और रलियों का त्यौहार आज भी मुझे याद है,उस समय सभी परिवारों कि आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नही होती थी तो गांव में उपलब्ध संसाधनों में ही यह त्यौहार मनाया जाता था I इस लेख में हो सकता है कुछ गलतियां हो क्युकी यह मेने सिर्फ अपनी जानकारी के आधार पर लिखा है और मुझे उम्मीद है आप कमेंट बॉक्स में जरुर इनको ठीक करेंगेI तो में शुरू कर रहा हूँI
मिटटी कि बनी होती है रली शंकर और बसतु कि मूर्तियाँ:
यह मेला हिमाचल के काँगड़ा में मनाया जाता है , फाल्गुन के महीने में गांव कि छोटी छोटी लडकियाँ रीठे जिसे डोडे कि गुठली को मिटी में कुछ दिन के लिए दवा देती है, फिर लगवघ एक सप्ताह बाद उनको निकाल कर अछी तरह से धो कर पूजा आदि कर के मिटटी के तीन खिलोने बना कर उनकी आँखे इन रीठे की गुठलियों से बनायी जाती है I जो मिटटी से तीन मुर्तिया बनाई जाती है उन्हें रली ,शंकर और बसतु कहते है ,रली को पार्वती ,शंकर यानी शिव भगवान और वश्तु को शायद गणेश का रूप माना जाता है I अब जिस घर में रलियाँ रखी जाती है उस घर में प्रतिदिन लडकियां सूर्योदय से पहले इकठी होती है और जंगली फुल जो कि वसंत में खुव होते है ,इन्हें खास रलियों के फूल ही कहते है ,चुग कर लाती है , इसके बाद वो इनको धुप टिका आरती आदि करते हुए रलियों के खास गीत गाती है I शाम को ढोलकी चिमटे के ऊपर गीत और भजन गाये जाते है ,यह सिर्फ एक दिन का प्रोग्राम नही होता वल्कि रोज ही ऐसा होता है ,रलियों वाले घर में उत्सब सा माहोल होता है जैसे जैसे रली के विवाह का दिन नजदीक आता है रोनक और बड़ने’ लग जाती है I
फोटो में आप देख सकते है कि रली कि मूर्ति मिटटी से बनायीं गयी है जिसमे रीठे से आँखे और मुह को क्लीरो में लगने वाले मोतियों से बनाया जाता है
विवाह से कुछ दिन पहले रली और शंकर को अलग अलग घरो में रखा जाता है :
अब विवाह से कुछ दिन पहले रली शंकर को एक अलग घर में शिफ्ट कर दिया जाता है और अब पूजा एक घर नही वल्कि दो घरो में होने लगती है ,लडकियों कि दो टोलियाँ बन जाति है , अब जो भी प्रोग्राम होते है वो ठीक शादी कि तरह होते है I शंकर के पक्ष वाली लकडिया लडके वाले कहलाते है और रली कि लड़की वाली l दिन में लडकियों कि टोलियाँ रली को एक टोकरी में डाल कर घर घर गाने जाती है जिसके बदले उन्हें गांव के लोग धान /धन आदि देते है ,इन्ही पैसो से वो आगे चल कर नई मूर्तियाँ और उनके लिए वस्त्र आदि खरीदती है
मात्र गुडे गुडिया का खेल नही
जैसे जैसे विवाह का दिन आता है गांव वाले भी अपना पुरा सहयोग देते है ,यह मात्र गुड्डे या गुडिया का खेल नही वल्कि पुरी श्रधा और रीति रिवाजो से मनाया जाने वाला रली शंकर विवाह होता है , और वकयदा दावत तक का इंतजाम होता है ,सारे कार्यक्रम एक सामन्य लड़के लडकी कि शादी की तरह होते है जिसमे फौक्स में बच्चो के खिलोने कहो या श्रदा रली शंकर होते है l
असली शादी जैसा माहोल,पुरा गांव लेता भाग:
विवाह के दिन शंकर के घर से वाकायदा लडकिया ढोलकी चिमटे बाजो के साथ बारात ले कर आती है ,शादी के गीत गाये जाते है ,कुछ जगह रात को धाम भी परोसी जाती है रात भर नाच गाना होता है और घर के बडे लोग और गांव वाले सब बराबर हिस्सा लेते है , फिर शादी कि तरह लग्न फेरे दिला कर रली और शंकर का विवाह करवा दिया जाता है , विवाह शायद विशाखी से एक या दो दिन पहले होता हैशान जैसे एक लड़की शादी कर के लड़के के घर चली जाती है ठीक वेसे ही रली को भी उसके यानी शंकर के घर शिफ्ट कर दिया जाता है , इस विच लडकियाँ ठीक वेसे ही रोती है जैसे अपनी सहेली या वहन कि विदाई पर और उसके बाद जैसे शादी से अगले दिन आम शादियों में लड़की वापिस मायके आ जाती है वेसे ही फिर से रली वापिस आ जाती है
रली विसर्जन और रली का मेला :
विशाखी के दिन रली और शंकर की मूर्तियों का विसर्जन कर दिया जाता है ,इस दिन काँगड़ा के कई इलाको में मेला लगता है जिसमे काँगड़ा के नदरूल और चामुंडा देवी माता से सटे गांव दाढ़ का रली मेला बहुत मशहूर है अकेली बनेर खड्ड के आसपास ही 10 से अधिक जगहों पर रली का विसर्जन किया जाता है,पालमपुर के लोग भेडू महादेव में , कांगड़ा के लोग चामुंडा देवी में, और बैजनाथ के लोग बिनवा नदी में मूर्तियों को विसर्जित करते हैं।
रली का मेला जो चामुंडा मन्दिर के पास लगता है उसमे भारी जनसैलाब उमड़ता है मेले में पशुओ कि मंडी भी लगती हैI
लुप्त होने को है यह परम्परा
अब यह अनूठी परमपरा लगबघ ख़त्म होने को है और शायद ही कोई ऐसा गांव होगा जहाँ यह आज भी मनाई जाती हो ,लेकिन मेले तो आज भी लगते है , 14 अप्रैल विशाखी वाले दिन इस वर्ष भी डाढ गांव में रलियों का मेला मनाया जायेगा जिस में हर वर्ष कि तरह छिंज का आयोजन होने जा रहा है I आज हमे जुरुरत है हिमाचल कि इन परम्पराओ को जीवित रखने की
नुआला के वारे में पढ़े :-
क्या होता है भगवान शिव को समर्पित गददी लोगो कि परम्परा नुआला पढ़े इस लिंक में
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