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ऊना जिले के गगरेट में अंबोटा गांव में स्थित शिव-बाड़ी या द्रोण शिव मंदिर है जो कि बहुत खास माना जाता है। मंदिर के पुजारी के पूर्वजों के अनुसार, जो क्षेत्र जंगल से ढका हुआ है, कभी द्रोणाचार्य नगरी हुआ करती थी। वो रोज यहाँ स्वाय नदी में स्नान किया करते थे और शाम को हिमालय पर भगवान शिव की पूजा करने जाते थे। वो काफी समृद्ध हुआ करते थे और उनकी एक पुत्री यज्यती थी। एक बार यज्यती गुरू द्रोणाचार्य से पूछती है कि वो रोज कहाँ जाते हैं और उनके साथ चलने का आग्रह करती है। गुरू द्रोणाचार्य उसे एक दिन अपने साथ ले जाने का वचन देते हैं लेकिन तब तक वो उसे बीज मंत्र ऊं नमः शिवाय के साथ शिवजी की पूजा करने को कहते हैं और वो बहुत ही श्रद्धा और विश्वास के साथ पूजा आरंभ कर देती है। एक दिन भगवान शिव प्रसन्न हो जाते हैं और वो उसके पास एक बालक के रूप में सामने आए। उसकी कोई इच्छा नहीं थी तो शिव भगवान उसी रूप में रोज उसके पास आने लगे और उसके साथ खेलने लगे।

यज्यती ने यह बात अपने पिता को बताई कि रोज एक जटाधारी युवक आकर उसके साथ खेलता है और अगले दिन द्रोणाचार्य जी उस रहस्यमयी बालक को खोजने का निश्चय कर लेते हैं। अगले दिन वो जल्दी वापिस आ जाते हैं और देखते हैं कि स्वंय भगवान शिव उनकी बेटी के साथ खेल रहे हैं। द्रोणाचार्य जी झुक जाते हैं और इस लीला के बारे में बताने की प्रार्थना करते हैं। तो भगवान कहते हैं कि उनको बच्चे ने बुलाया तो उन्हें आना ही पड़ा।

यह देखकर यज्यती भगवान से हमेशा उसके साथ रहने का आग्रह करती है। भगवान कहते हैं कि वैसे तो वो सर्वत्र विद्यमान हैं और जब भी उनको कोई पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ बुलाता है तो वो अवश्य आते हैं, लेकिन फिर भी वो हर साल इसी समय वो वहां आया करेंगें और उस स्थान पर उनका वास रहेगा। गुरु द्रोण ने एक पिंडी बनाई और भगवान शिव उसमें अदृश्य हो गए। यह बैसाखी के बाद दूसरा शनिवार था और मान्यता है कि इस दिन यहाँ आने वाले की हर इच्छा पूरी होती है।

कहा जाता है जब मुस्लिम शासक हिन्दू मंदिरों को नष्ट कर रहे थे और हिन्दूओं से जनेऊ छीन रहे थे तो वो इस स्थान पर भी पहुंचे थे। उन्होंने मंदिर को तहस नहस करना शुरू कर दिया लेकिन उस समय जलैहरी और पिंडी जमीन में धंसने लग गई। तब मुस्लिम शासक ने सैनिकों को बाकी सब छोड़कर पिंडी को तोड़ने का आदेश दिया। लेकिन तभी कहीं से कुछ लाल रंग के कीट-पतंगों ने उन सब पर आक्रमण कर दिया। जिस जिस को उन कीटों ने काटा, बेहोश हो गया और इस तरह हजारों सैनिक मंदिर परिसर में गिर गए। इस पर राजा को अपनी गलती का एहसास हुआ और माफी मांगने लगा। बूढे पंडित ने आकर सबपर जलैहरी से पानी लेकर सब पर छिड़का और सब सैनिक होश में आ गए। शासक ने वहां माथा टेका और अपने सैनिकों को लेकर वहां से चला गया।

यह मंदिर चिंतापूर्णी मंदिर से लगभग 17 किमी दूर है। तो जो भी चिंतपूर्णी मंदिर आता है यहाँ जरूर जाता है। इस स्थान पर ज्यादातर पंजाब के श्रद्धालु आते हैं, क्योंकि यह रास्ते में ही पड़ता है।


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